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5/14/21

अक्षय तृतीया {आखातीज}:- त्रिलोक सेजू गंगावास


                अक्षय तृतीया {आखातीज}:- त्रिलोक सेजू गंगावास 

किसान कौम का मुख्य पर्व अक्षय तृतीया आज के समय में केवल दिन का प्रतीक बनकर ही रह गया है। पहले के समय किसानों का इस त्योहार के प्रति कितना उत्साह था। जब किसी बुजुर्ग से सुनते है तो आज के समय में हम इस त्योहार के प्रति खुद को नदारद पाते है। 

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उखड़ ग्या ऊखळ, भिखर ग्या केवटणा,

राईज्गी हांडिया'न, तीड़ ग्यी डुहिया।


पहले के समय में जब भी यह पर्व आता था तो घर की औरतें अलसुबह जल्दी उठकर चक्की पीसती थी। जल्दी उठ कर खींच कूटती थी। एक बड़े मिट्टी के बर्तन में सब्जी बनाती थी। छोटे बर्तनों में शुद्ध व्यजंन बनाके घर के सदस्यों को परोसती थी। उस व्यजंन को खाकर किसान कौम कितना प्रफुल्लित होता था। लेकिन आज के समय में वो सब केवल मुंह की बातें ही रह गयी। 


रै रूढ़ी आखातीज कटै री वे पैला री बातों,


तन उघाड़े हलिया खड़ता,

जम ने खाता खींच।

कौठड़िया रो ठावों पूछता,

जद आती आखातीज।


किसान जल्दी उठकर हाथ मे लकड़ी का हल लेकर खेत जाते थे। सुबह सुबह पंछी-पंखेरू की आवाज से शगुन को पहचान लेते थे। अग्रिम मौसम की भविष्यवाणी कर लेते थे। किसान कितने बलवान हुआ करते थे। एक मण के बराबर खींच खा लेते थे। लेकिन आज के समय में तो बाजरे की आधी रोटी भी नहीं पसती है। घी, गुड़ और दूध को खींच में मिलाकर बनाकर पी जाते थे। आज तो किसी को गुड़ से नफरत है, कोई गुड़ के साथ दूध नहीं खा सकता है। किसी ने तो खींच का नाम ही नहीं सुना है।    पहले आखातीज के दिन किसान एक जगह गांव के चौक में इकट्ठा होकर प्रेम की बातें करते थे। घर घर जाकर खींच जीमते थे। आज तो इकट्ठा होना तो दूर अनेक तो किसी का मुंह तक देखना नहीं चाहते है।


कठै बो प्रेम, कठै बे अपणायत आली बातां।


सवेरे किसान कौम के दुलारे, प्रकृति के प्यारे जब अपने नन्हें नन्हें हाथों से हल के माध्यम से जमीन को खोदते थे।    तो यह प्रकृति भी उन पर हर्ष करती थी। उनके पैरों में बजने वाली घण्टिया दूर दूर तक मधुर संगीत का एहसास कराती थी। उनके मुख से निकलने वाली वो संगीत की कला से प्रकृति खुद आकर उनका स्वागत करती थी। आज तो लोग प्रकृति से ज्यादा तो भौतिक सुखों को अपने पास रखे हुए है। आधुनिकीकरण की इस दौड़ में किसान कौम के प्राकृतिक त्योहार भी विलुप्त होते जा रहे है।


गांवो की पहले की आखातीज को कभी किसी से सुनता हूँ, तो बड़ा दुःख होता है। तब न कोई वैर था, न कोई ओछापन। चारों और अगाध खुशियां व प्रकृति प्रेम ही व्याप्त था। अब तो सब लोग खलिया खेती भी भूल गए। भूल गए हाळी अमावस भी। त्योहार का तरीका भी भूल गए। आज तो अक्षय तृतीया का त्योहार केवल सोशल मीडिया पर औपचारिक सा हो गया है। प्रकृति से जुड़े त्योहारों की जगह बर्थडे,एनिवर्सरी ने ले ली है।


त्योहारों रो तरीकों भूल ग्या,

भूल ग्या खलियों खींच।

पड़गी सूनी आबाद कोटड़ी,

आछी आई आ आखातीज।


कभी क्षय न हो हम सबका आपसी स्नेह, प्रेम नित भरता रहे अक्षय भंडार, प्रकृति सब को प्रसन्न रखें। सब प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्यों को समझें। आपसी प्रेम भाव के विचारों का प्रवाह हमेशा अनवरत रहें।


अक्षय तृतीया की शुभकामनाएं।

शुभेच्छु:-- त्रिलोक सेजू गंगावास {बाड़मेर}


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