तिमिर फैला सर्वत्र था:- प्रजापति झा
*दोस्ती में दरार*
दोस्ती में दरार*
तिमिर फैला सर्वत्र था,
उन्मन था मन मेरा,
अशोभन था जग समस्त,
विह्वल हृदय था मेरा,
मैं अधम या वो अज्ञानी?
जो हमने साथ था छोड़ा,
कारण जो लगा ढूंढ़ने,
तब मैंने कुछ पाया,
शायद स्वाभिमान के कारण हीं,
हमने अपनत्व को था तोड़ा,
क्या बताऊं तुम्हें ओ साथी!
कैसा मित्र था वो मेरा,
सुबह होती निकलते साथ,
संपूर्ण गांव घूम आते,
तालाब में थे साथ नहाते,
चाचा के अमरूद चुराते,
घर लौट विद्यालय को होते तैयार,
विद्यालय नहीं हम जाते!
बीच रास्ते दादा का था बगीचा,
उसकी शोभा हम थे बढ़ाते,
रुधिर हों,मन हो या हो हमारे प्राण,
एक थे सब मानो,
"एक जिस्म दो जान"
कैसे हो गया हृदय कठोर?
स्वार्थ ने मुख किया हमारी ओर
व्याहार जो किया था हमने,
टूटा अब वो पूरा,
प्रत्यय जो था हमारा,
छूटा अब उसका भी सहारा,
वो वक्त, वो घड़ी,वो पल,
आज भी अश्रुपूरित करता है,
सच कहें तो अपनों का,
साथ कभी न छूटता है?
उसे जाना था पढ़ने शहर,
पैसों की हो गई तंगी,
अब वो आया सहयोग खातिर!
उसे देख हुई खूब प्रसन्नता,
मेरे पास नहीं थे पैसे,
क्या करता अब मैं?
मैंने कहा धैर्य धरो सखे!
कहां को अभी तुम जाओगे?
वक्त कम और इतने पैसे,
कहां से जुड़ाओगे?
सच कहता हूं "आनंद"
पैसे सबको रुलाता है,
अपनों में अपनों को लड़ाता है,
वही हुआ उस दिन भी,
वो चला गया यह कह कर,
की नहीं चाहिए अब मदद
तुम्हारी, न चाहिए सहयोग,
रखो संभाले खुद के पैसे,
खूब करो उपभोग,
अब भी राह मैं तकता हूं,
वर्ष दशक हुए हैं पूरे,
आए वो मिलें हम,
बीते लम्हे याद कर,
फिर पुरानी जिंदगी जिए हम।
✍️ प्रजापति झा
(पूर्णियाँ, बिहार)
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बहुत खूब लिखा प्रजापति जी 🙌🙌🙌
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत झा साहब ❣
ReplyDeleteबचपन के दोस्ती की बेहतरीन दिलस्पर्शी सृजन के लिए आदरणीय कवि श्री प्रजापति झा जी को सहृदय बधाई एवं अनन्त मंगलकामना ।
ReplyDeleteधन्यवाद,🙏🏻
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