बीत रही है यह:- शशि कांत श्रीवास्तव
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मेरी कलम से...,
विभावरी -जाग री
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बीत रही है यह, विभावरी
जाग री ---धीरे धीरे
भोर का धुंधलका दे रहा है
दस्तक...
तिमिर और तारे भी जा रहे हैं
धीरे धीरे....
बीत रही है यह, विभावरी...
रश्मि के रथ पर हो कर आरूढ़
कल का सूरज उगेगा, धीरे धीरे
जाग री....
पंक्षी भी करेंगे, कलरव --और
विचरण मुक्त गगन में
सुमन वृन्द भी बिखेरेंगे अपनी
सुगंध को इस वसुधा पर
धीरे धीरे....
और, नव चेतना का संचार जगेगा
मानव मन में... कि
चलो, कुछ काम करें देश हित में
जाग री..
बीत रही है यह, विभावरी
जाग री..... धीरे धीरे ||
शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली, पंजाब
©स्वरचित मौलिक रचना
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अत्यंत सुंदर मनमोहक गीत के लिए आदरणीय कविवर को सहृदय बधाई नमन!
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