वो दिन बचपन के
याद आये जब वो दिन बचपन के
भर आये आँख मन के ।
वे बचपन का खेल
लड़ना - झगड़ना और फिर मेल ।
कितकित की वह गोटी
पतली न ज्यादा मोटी ।
कब्बडी में वो छूकर भागना
मर - मर कर कई बार जीना ।
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याद आये जब वो दिन बचपन के
भर आये आँख मन के ।
कांच की गोली
कोट बनाकर हमनें खेली ।
खेल में प्यारा लुका - छुप्पी
छिप - छिपकर मारना धप्पी ।
लट्टू का यूँ तेज नचाना
गुंज मारकर उसको फाड़ना ।
करते कितनी मौज - मस्ती
बनाकर चलाते पानी मे कागज की कश्ती ।
याद आये जब वो दिन बचपन के
भर आये आँख मन के ।
✍️ सुनील सागर
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(पूर्णियां, बिहार)
मेरी रचना को अपने मंच पर स्थान देने के लिए आपका धन्यवाद मान्यवर
ReplyDeleteLoveing to see your poems every time
ReplyDeleteजय हो
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