जटा शंकरी
मेरे वेग को सहा जटा धारी ने,
जटा शंकरी ही कहलाऊगी मैं।
हाँ जटा शंकरी हूँ मैं ,
अब भी हाहाकार मचाऊँगी ।
अब मेरा वह विस्तार कहाँ है?
अब मेरा वह सत्कार कहाँ है?
मानव अब सुधि ले तू अपनी,
पतित पावनी हूँ मै फिर भी,
अनजानी भूल की तो माफी है।
तेरे पाप अब और न धो पाऊँगी,
हर पल पाप तू करता है।
फिर आकर हाथ तू धोता है।
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आज भी मै तो वही गंगा हूँ।
वही अमृत जल पावन हूँ।
मुझको यहाँ वहाँ रोका तुने ही,
नालियां - कचरा छोडा तुने ही,
रौद्र रूप जब जब लेती हूँ ।
सब कुछ फिर धो देती हूँ।
अतिक्रमण तुम करते हो।
मेरा दमन जब करते हो।
विशाल रूप विस्तार धरूँ जब
तब क्यों फिर तुम रोते हो ,
नदियों को तू पाट रहा है।
सीमा रेखा मे बाँट रहा है।
गंगाजल की कीमत समझते नहीं,
जल के बिना तु जल जाऐगा।
ऐसा ही चलता रहा चहूँ ओर,
तो प्रलय के दिन अब दूर नहीं,
कब तक मुक्ति दिलाऊँगी मैं,
कलयुग में अब वापस,
चली जाऊँगी मैं ।
हाँ जटा शंकरी हूँ मैं
जटा शंकरी ही कहलाऊगी मैं।
अब भी हाहाकार मचाऊँगी ...
जटा शंकरी ही कहलाऊगी मैं।
हाँ जटा शंकरी हूँ मैं .।
✍️ गरिमा पाठक ..
राँची झारखंड
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(पूर्णियां, बिहार)
अत्यंत सुंदर संदेशप्रद मनभावन कविता के लिए सहृदय बधाई आदरणीया!
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