आयने की अदालत
लो आ खड़े आयने की अदालत में हम,
सब पदके अधिकारी बने हम,
जज भी, गुनहगार भी, वकील भी हम ।
क्या किया जो नहीं करना था,
क्या नही किया जो करना था,
इल्जाम पे इल्जाम के दौर चले,
ऑर्डर ऑर्डर के ठहाके भी लगे।
अपने किए को हमने अच्छे से सराहा था,
कभी साधन सुद्घि से, तो कभी हेतु से नवाजा था।
हम ही जानते थे क्यों कब कैसे हमने किया था।
अपनी हर बेगुन्हाई का सबूत हमने जमा किया था।
कुछ बात थी जो हमे रोक रही थी,
कुछ सच्चाई उगलवाने की कोशिश हो रही थी।
हम भी सच्चाई में खींचे चले थे इस अदालत में,
हमने गांधी की जगह आत्मा की तस्वीर जो लगाई थी।
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आखिर में जजसाब ने अपनी नजर से हमे परखा,
आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट का हमे ऑफर भी दिया।
वो ही तो थे हमे अपने और गैरो से बचाने वाले
मौका देख हमने ऑफर तुरन्त स्वीकार कर लिया।
जज साहब आत्मा की चैम्बर में दाखिल हुए
अपने आप को हमने महेफुस जगह पाया।
क्यों ? जानते हो हमे? देखा है हमे कही?
जज साहब ने पूछा।
हा! अब याद आया,आप तो वहीं हो,
उसीके ही छोटे हो, हमने कहा।
किसके? जज साहब ने पूछा !
वहीं , जो कभी बजाता है,कभी गाता है,
वक़्त आने पर चक्र भी चलाता है।
सही कहा, बस, उसे साक्षी मानके
अपना फैसला अपनी सजा खुद तय करो,
उसके कहे पे नहीं, उसके किए पे जाओ
पल एक भी उसके बगैर का ना हो,
सारे किए हुए उसे ही समर्पित हो,
जब अपना नहीं है कुछ, तो फिर गम क्यों?
उसकी अदालत में बैठे हमे डर क्यों?
छोछ नहीं अब हमे दुन्यवी मतलब से,
बा इज्जत बरी हो कर निकले आयने की अदालत से।
राजेश।
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