बड़े हर्ष के साथ सूचित कर रहा हूँ कि लोकप्रिय साहित्यिक मंच साहित्य आजकल के द्वारा *"आपकी रचना-आपकी पहचान"* कार्यक्रम आयोजित की गई है। इस कार्यक्रम के निमित्त आ0 रत्ना बापुली जी की रचना प्रेषित है। आप सभी अवश्य पढ़ें व टिपण्णी दें।
मेरी अभिलाषा
तू है प्रभू पारस,
कलुषित है मेरा तन मन
एक बार ही छू ले तू अगर,
मन हो जाए कंचन ।
वृक्ष बना ले मुझको प्रभू
जैसे पेड़ हो चंदन,
लिपटी रहे सर्प सम दुशमन,
फिर भी न हो परिवर्तन ।
मन को बना प्रस्तर सम,
भावहीन व बंजर,
कोई बेदना कर न सके,
मन को मेरा जर्जर ।
फल दार दरख़्त सा बनू मै,
खाऊँ चोट व प्रहार ।
बदले मे दूँ उसको फल,
मीठे व रसदार ।
दीप सा प्रभू बना मुझे,
जलू मै आठो प्रहर ।
आलोकित करूँ मै जग
अंतिम सॉस तक जल जल ।
घंटा मुझे बना दे प्रभु
बनू समय का साज,
चोट खाकर बजती रहूँ,
करूँ मधुर आवाज ।
लय ताल सा छंद गढूँ
बनूँ तबले की थाप,
खाऊँ चाटा औरो से
पर करू न मै अनुताप ।
हरी दूब सा बनकर मै,
फैलू धरणी के वक्ष ।
पैरो से रौदा जाऊँ पर,
त्यागु न अपना स्व कक्ष।
इतनी हिम्मत देना प्रभू,
कभी न त्यागू आश,
असमय मृत्यु न करूँ बरण
स्वजन का न बनूँ फाँस ।
रत्ना बापुली लखनऊ
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