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2/21/22

अभिव्यक्ति में राष्ट्रीय संस्कृति:- आशुतोष भारद्वाज

 अभिव्यक्ति में राष्ट्रीय संस्कृति

यदि भारत में जन्म लेकर व्यक्ति की अभिव्यक्ति राष्ट्रीय संस्कृति से ना जुड़े तो संभवतः उससे विधाता ही विपरीत है। यदि कोई इस पुण्यभूमि पर जन्म लेकर भी केवल अपने आप तक सीमित है तो यह समझना चाहिए कि उसने भारत में जन्म लेने का जो सौभाग्य कई जन्मों के पुण्यता से प्राप्त किया था| उसने वह गवां दिया है|हमारा देशीपन, भोलापन, गंगा, गौ ,गोविंद से प्रेम हीं तो भारतीय होने का एहसास है।  


विश्व में एक मात्र यह संस्कृति है जिसने मनुष्य को मनुष्य होने के सारे अधिकार दिए हैं|हमारे पिताजी हमें बचपन से यहीं बताते आए हैं पशु और मनुष्य में केवल इतना हीं अंतर है। मनुष्य सोच सकता है, प्रश्न कर सकता है, नये विचारों को जन्म दे सकता है, लेकिन पशु केवल अपने मालिक पर आश्रित रहने के अलाव कुछ भी नहीं कर सकता|अब आप विचार कीजिये की आज विश्व में जितनी भी संस्कृति जीवंत हैं क्या उनमें यह क्षमता है कि वो स्वतंत्र विचार को स्वीकार करें अंगीकार करें? क्या कोई संस्कृति ऐसी है जो प्रश्नों को सहन कर सके? पश्चिम में जब गैलिलियों सूर्य और पृथ्वी का संबंध बताता है क्योंकि वो संबंध उनके किताब से मेल नहीं खाती, उसे फांसी पर टांग दिया गया|वहीं जब भारत में आर्यभट्ट नें नया सिद्धांत दिया,वे पूरे भारत में सम्मानित हुए।

            भारतीय संस्कृति ने तो उस एक सत्य परमपिता परमेश्वर सच्चिदानंद तक पहुंचने के सारे रास्तों को स्वीकार किया है|साकार(मूर्ति पूजा), निराकार ब्रम्ह, ज्ञान, भक्ति वैराग्य, संयास, योग इतना सबकुछ इसके बाद भी कोई भी इन सब पद्धतियों पर प्रश्न भी कर सकता है और यदि योग्यता हो तो नया रास्ता भी दिखा सकता है। लेकिन क्या अरब की संस्कृति में इतनी उदारता, इतना विराट हृदय है? क्या आप वहाँ अपने मन के भावनाओं के अनुसार परंपराओं को अपना सकते हैं नहीं क्योंकि वहाँ विकल्प हीं नहीं है,वहां तो केवल एक रास्ते हैं|यदि आप उस रास्ते से अलग तो छोड़ए उसपर सुधार के प्रयास या उसपर जरा भी प्रश्न पुछे,मानो आपके ऊपर काल मडराने लगा हो।

इसलिए मैं कहता हूं यदि भारत में जन्म लेकर भी व्यक्ति की अभिव्यक्ति में राष्ट्रीय संस्कृति से जुड़ाव ना हो तो संभवतः उससे विधाता हीं विपरीत है ।

✍️ आशुतोष भारद्वाज

        पूर्णियां सिटी, पूर्णियां

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