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4/13/22

लेखक बनाम सहित्य( लेख ) :- रीमा महेंद्र ठाकुर

                              शैली - लेख

शीर्षक:-" लेखक बनाम सहित्य "

लेखक, एक   उर्जावान नायक की छवि सामने आ जाती है, जिसके हाथ मे डायरी   पेन, नोटबुक, चेहरे पर एक मृदु मुस्कान, पर आज समय बदला " जिधर नजर जाती है, लेखकों का सम्राज्य, ऐसा प्रतीत होता है, जैसे पूरा भारत सहित्य मे समा गया! 

पर हकीकत तो कुछ और ही है! जहाँ देखो पैसो की मारा मारी " हर लेखक का सपना बडे मंच तक जाना, और सम्मानित होना " आपाधापी भरे जीवन में क्या संभव है! 

कुकुरमुत्ते की तरह समूह उग आये है! अच्छी बात है! पर क्या हम इस भीड में खो नही रहे "  पुराने लेखक सहित्य जीते थे! आज सहित्य पीते हैं!               


आज बस सब लिखते जा रहे है, पर पढता कोई नहीं " किसी ने एक चैप्टर पढ लिया " बस हो गया! 

क्या हर समूह मे आवश्यक है शायद नही "सहित्य को समझने के लिए, उसे जीना, और समझाना होता है! 

कुछ सहित्यकार सच में समर्पित है कुछ ने तो बकायदा बिजनेस बना लिया" सहित्य के नाम पर इंग्लिश मे ताम झाम बना कर भेजते हैं, और एक कहावत भी दबी जुबान बोलते है! 

जो दीखता है, वही बिकता है! कविताओं को मिडिया मे डालकर व्यू पर ही नजर टिकी रहती है! ये कडुवा है किंतु सत्य "सहयोग राशि के नाम पर बडी संस्थाऐ, स्मृति चिन्ह् पदक इत्यादि देती है! कहा तक ये सही है, आज एक सहित्यकार कुंठा  में जी रहा है! 

नवांकुर दिन भर ओपन माइक पर कार्यक्रम करवाते है" खुशी मिलती है, की हमारी युवा पीढ़ी समझदार है! 

पर  जो सूची इंग्लिश मे तैयार की जाती है वो क्या सही है! उनको चलाने वाले युवाओं को हिन्दी की कुछ लाईने भी लिखनी नही आती " तो  सहित्य को कैसे आगे ले जाऐगे, लेखक का मतलब " शायद लेखक ही नहीं समझ पाते, लेखन के भागदौड़ में, क्या जो लिखकर परोस रहे है, शायद वो खुद संतुष्ट नहीं है! हर मंच पर हर दिन कुछ न कुछ नया देखने को मिल जाता हैं! 

यदि आप अच्छा कर रहे हो तो निष्ठा पूर्वक करो, कोई जल्दी नही " ताकि आप संतुष्ट हो सको " अच्छे बुरे लोग हर जगह मौजूद है " उनके साथ आपको चलना होगा, चाहो या न चाहो, बस वही लिखो " जिससे किसी को तकलीफ न हो और आपकी छवि आप खुद निर्मित करते हो"


धन्यवाद रीमा महेंद्र ठाकुर "

राणापुर झाबुआ मध्यप्रदेश















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1 comment:

  1. रीमा महेंद्र ठाकुर जी, प्रणाम
    आपका लेख पढ़ा , इस में वर्तमान युग के लेखक के मन की खिन्नता साफ झलक रही थी जो कहना तो बहुत कुछ चाहता है लेकिन सम्भाषण की मर्यादा के चलते सीमित शब्दों में अपनी बात समेटे दे रहा है। इसकी हिंदी के प्रति प्रेम व असहिष्णुता समझ में साफ साफ दृष्टिगोचर होती है उसके शब्द लड़खड़ा रहे हैं आजकल के अंग्रेजी भाषा के लेखकों के आचरण को देख कर। सच बयान किया है आपने लेकिन आपकी लाचारी साफ झलकती है फिर भी आप हिम्मत न छोड़िये हम सब इसी प्रयास में लगे हैं । हम होंगे कामयाब एक दिन के उत्साह वर्धक मूल को याद कीजिए इति डॉ अरुण कुमार शास्त्री--एक अबोध बालक - अरुण अतृप्त

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