हिन्दी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर थे कवि घनश्याम
मुझमें बहती है जो नदी मेरी/दरअसल है वो शायरी मेरी। अपने इस शेर के मुताबिक ही कवि घनश्याम अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक साहित्य सृजन करते रहे। हिन्दी साहित्य जगत में सुप्रसिद्ध गज़लकार एवं साहित्यकार के रूप में कवि घनश्याम ने अपनी एक अलग पहचान कायम की थी। इनकी सृजित ग़ज़ल,शायरी, दोहे और कविताएं पाठकों को दाद देने के लिए मजबूर कर देते थे। उन्होंने सामयिक विषयों पर कुछ आलेख भी लिखे। उनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती थी, जिनमें आर्यावर्त,अग्रसर,सन्मार्ग इत्यादि समाचार पत्र तथा साहित्यिक पत्रिकाओं में स्पंदन,रेल वाणी, नई धारा, प्रहरी, हरित वसुंधरा, आचार्य पथ, आंच वेब पत्रिका आदि प्रमुख हैं।
कवि घनश्याम ने अपनी रचनाओं में सामाजिक स्थितियों पर विशेष बल दिया। वह समाज को हमेशा अग्रसर देखना चाहते थे। घनश्याम जी जब अपनी काव्य प्रस्तुति देते थे, तब श्रोता आत्मविभोर हो जाते थे। इनकी लेखनी तथा बोलने की शैली अद्भुत थी। ये एक नेक दिल और मिलनसार इंसान थे।
कवि घनश्याम का जन्म 1अप्रैल 1951 को बिहार के मुंगेर जिले में हुआ था। इनकी शिक्षा बीए हिन्दी प्रतिष्ठा में हुई थी। इनके पिताजी का नाम स्वर्गीय रामेश्वर प्रसाद और माताजी का नाम गोदावरी देवी था। घनश्याम जी बिहार राज्य विद्युत बोर्ड से लेखापाल के पद से सेवानिवृत्त हुए।
साहित्य के प्रति घनश्याम जी का लगाव बचपन से ही था। उस समय मुंगेर मे आयोजित होने वाले अधिकतर कवि सम्मेलनों में कविताएं सुनने जाते थे। तरुणावस्था से ही उनका रुझान ग़ज़ल लेखन की तरफ होने लगा। अपनी युवावस्था से ही इन्होंने कवि सम्मेलनों में प्रस्तुतियाँ देनी शुरू कर दी थी। उस दौरान आकाशवाणी भागलपुर से भी इनकी कविताओं का प्रसारण नियमित रूप से होता था। परंतु पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन की ज़िम्मेदारी ने इनके साहित्य सृजन पर कुछ समय के लिए थोड़ा ब्रेक लगा दिया। सेवानिवृत्ति के बाद से कवि घनश्याम ने अपना अधिकतम समय साहित्य को समर्पित कर दिया।
एक कवि होने के साथ ही घनश्याम जी एक अच्छे वक्ता भी थे। कवि सम्मेलन, संगोष्ठी आदि आयोजनों में मंच पर वक्ता के रूप में श्रोता इन्हें बहुत पसंद करते थे। मैं इन्हें अपना पथ प्रदर्शक मानता था। वे भी मुझे बेहद प्यार करते थे और सदैव साहित्य सृजन के लिए प्रोत्साहित भी करते थे। कई साहित्यिक आयोजनों में इनके साथ मेरी भी भागीदारी रही। घनश्याम जी लंबे समय से साहित्यिक संस्था मानवोदय, पटना सिटी के कार्यकारी अध्यक्ष रहे।
वैसे तो घनश्याम जी काव्य विधा में निपुण थे, लेकिन उसमें भी गज़ल लिखने और बोलने का अंदाज बड़ा निराला था। इनके एक-एक शब्द में प्राण रहते थे। इन्होने आजीवन साहित्य की भरपूर सेवा की है। इनके द्वारा प्रकाशित कृतियों में सापेक्ष-32 गज़ल संग्रह, इंद्रधनुषी हिन्दी गज़लें, हिन्दी ग़ज़ल का बदलता मिजाज, बिहार की गजलें, इक्कीसवीं सदी की गज़लें, कविता अनवरत-1आदि शामिल हैं। इसके अतिरिक्त इनकी रचनाएं साझा संग्रह में भी प्रकाशित हुई थी। "ख़ुशबू-ख़ुशबू रात ग़ज़ल है" शीर्षक से इनका ग़ज़ल संग्रह शीघ्र ही प्रकाश्य है।
घनश्याम जी गज़लों में हिन्दी शब्दों का प्रयोग बेहद आकर्षक ढंग से करते थे। क्षितिज की गोद में बैठा भकाभक लाल है सूरज, व्यर्थ मूल्यांकन हो गया है, भूत भय-भीरुता के भगा दीजिए, शुद्ध अंत:करण नहीं मिलता, जब मधुप को नज़र पंखुरी आ गई आदि ग़ज़लें इनकी कुछ बानगी हैं। कवि घनश्याम अपनी एक ग़ज़ल अक्सर गुनगुनाया करते थे, मुझको मरना ही होगा, तो मर जाऊंगा/अपनी खुशबू तेरे नाम कर जाऊंगा/इस मिट्टी से ही मेरा अस्तित्व है/एक दिन मैं इसी में बिखर जाऊंगा।
कवि घनश्याम की रचनाओं का प्रसारण दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से अक्सर होता रहता था। यहां भी इन्हें काफी सराहना मिलती थी। घनश्याम जी ने साहित्य की महती सेवा की। साहित्य को समृद्ध और संबल बनाने हेतु इन्हे कई पुरस्कारों/सम्मानों से भी नवाजा गया, जिनमें दलित साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन पटना द्वारा हिन्दी सेवी सम्मान, छंद राज स्मृति सम्मान, मथुरा प्रसाद गुंजन स्मृति सम्मान इत्यादि के अतिरिक्त विभिन्न साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था द्वारा सम्मानित किया जाना शामिल हैं। डॉ शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव स्मृति सम्मान से इन्हें 20 मार्च 2021को हिन्दी साहित्य सम्मेलन पटना द्वारा सम्मानित किया गया। आज कवि घनश्याम हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी स्मृतियाँ सदैव हमारे लिए प्रेरणादायक रहेंगी। इनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी,जब कोई साहित्यकार फिर साहित्य सृजन कर इतिहास रच दे। किसी ने ठीक ही कहा है फूल सूख कर बिखर गए, लेकिन सुवास बनी रहे।
दुर्गेश मोहन
चक वेदौलिया
समस्तीपुर
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