श्रम ही पूजा
श्रम प्रार्थना , श्रम ही पूजा ,
श्रम है स्वप्न विचार।
श्रम ही जीवन , श्रम कर्म है ,
श्रम सभ्यता आधार।
संघर्षशील मनुज ने गढ़ दी ,
पाषाणों में नव प्राण।
अपने हाथों से गढ़ा अनेक ,
सभ्यता का निर्माण।
जिन हाथों से नित करता ,
प्रकृति का अनुपम श्रृंगार।
मेरे श्रम से टिकी हुई है ,
संस्कृति का सब आकार।
जिन हाथों ने गढ़ी सभ्यता ,
उन हाथों को काट दिया।
कैसे सृजन अब होगा बोलो ,
स्वाभिमान को बांट दिया।
मिला न अधिकार आजतक ,
नहीं स्वप्न साकार किया।
रुप सजाने वाले हाथों को ,
तुमने ही बेकार किया।
मना रहे मजदूर दिवस ,
मेरी ही मजबूरी में।
नारे गढ़े , हाथ तो गढ़ता ,
मेरी ही मजदूरी में।
स्वप्न भरे मेरे आंखों में मेरे ,
उन आंखों को छीन लिया।
तुम विस्मित , जग अचरज में ,
मुझे अधमरा छोड़ दिया।
कैसे सपन सजा लोगे ,
मेरे बिन सब सूना है।
दीन बना , मन रोता है ,
रोता हृदय का कोना है।
जगती बनी जीवंत आज ,
जिसके श्रम - सीकर से।
जिससे प्राणवंत जड़-चेतन ,
धोया न कभी गंगाजल से।
छू दिया जिस माटी की मूरत ,
बना वह पूजनीय है।
वह अस्पृस्य बना जगत में ,
जिसकी कृति अतुलनीय है।
जिसके नींव पर टिकी सभ्यता-
संस्कृति का तन है।
वही उपेक्षित बना आजतक ,
उसका तन- मन - जीवन है।
कैसे हो कल्याण सृष्टि का ,
नव विहान तो होगा।
सृजन के गायन का कोई ,
नव विधान तो होगा।
कर्मशील बिन मानव के कैसे ,
नव जीवन के अंकुर फूटेंगे।
धरा की कोख न बने बंजर ,
शुभ संदेश ही गूंजेंगे।
डॉ. किशोर कुमार यादव
पूर्णिया , बिहार।
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