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बाजारू प्रकाशकों के आर्थिक शोषण से बचना ही एकमात्र विकल्प:- सिद्धेश्वर
साहित्य आजकल की साहित्यिक खबर:- शोषण के लिए प्रकाशकों से ज्यादा साहित्यकार दोषी हैं !:- हरे कृष्ण प्रकाश
"बाजारू प्रकाशकों के आर्थिक शोषण से बचना ही एकमात्र विकल्प !": सिद्धेश्वर
"प्रकाशकों के शोषण का शिकार हैं छपास रोग से ग्रस्त साहित्यकार !: चैतन्य किरण
सभी प्रकाशकों को गलत नजरिए से देखा जाना उचित नहीं । : शिवेश्वर दत्त पांडे
पटना:- " गैर साहित्यिक संस्थाओं द्वारा साहित्यकारों को सम्मान पत्र के साथ कुछ सम्मान राशि देने के बजाय लेखकों से ही , समारोह शुल्क के नाम पर आर्थिक दोहन जमकर किया जा रहा है l सोचिए, विचार कीजिए, चिंतन कीजिए कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों आई कि आज के लेखक प्रकाशकों के शोषण के शिकार हो रहे हैं ? क्या पहले के लेखक आज की तरह सम्मान पाने के लिए दौड़ लगाते थे ? क्या पहले के लेखक दो -चार रचना लिखने के बाद ही, अपनी उन रचनाओं को प्रकाशित करवाने के लिए बेचैन हो उठते थे ? क्या पहले के लेखक सृजन और अध्ययन में मेहनत करने के बजाए, सस्ती लोकप्रियता के लिए अपना बहुमूल्य समय इसी तरह बर्बाद करते थे ? क्या पहले के लेखक प्रकाशकों की जी हुजूरी किया करते थे ? ऐसे ढेर सारे सवालों के जवाब के लिए आत्म चिंतन,आत्म मंथन करना बहुत जरूरी है, तभी लेखकों का अपना अस्तित्व कायम रह सकता है, और वे बाजारू प्रकाशको के द्वारा किए जा रहे आर्थिक शोषण से बच सकते हैं l और यही एकमात्र विकल्प भी है l"
भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में, गूगल मीट एवं फेसबुक के' अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका ' के पेज पर ऑनलाइन " प्रकाशकों के शोषण का शिकार आज के साहित्यकार क्यों ? " विषय पर जमकर चर्चा हुई, जिस का संचालन करते हुए संयोजक सिद्धेश्वर ने उक्त उद्गार व्यक्त किया और जिसमें देश भर के प्रतिनिधि साहित्यकारों और संपादकों ने हिस्सा लिया l उन्होंने कहा कि" किसी एक प्रकाशक के लाभ के लिए, लेखकों को मूर्ख बना कर, उनके ही पैसे से उनकी पुस्तक का प्रकाशन कर उन्हीं को बेचने का धंधा कहीं से भी सराहनीय नहीं कही जा सकती है l "
मुख्य अतिथि चर्चित शायर चैतन्य किरण ने कहा कि -" आजकल साहित्य इतना सस्ता हो गया है कि न तो साहित्यकार अपनी रचना का मोल समझते हैं और न ही प्रकाशक। इसलिए साहित्यकारों को रॉयल्टी/मानदेय देना तो दूर, प्रकाशक उन्हें लेखकीय प्रति भी नि:शुल्क देना उचित नहीं समझते। साझा संग्रहों के मामले में यह बात और भी सटीक बैठती है। उल्टा प्रकाशक/संपादक रचनाकारों को संबंधित पुस्तक खरीदने के लिए बाध्य करते हैं। ऐसे अनुचित और अनैतिक कृत्यों का विरोध नहीं किए जाने के कारण प्रकाशकों/संपादकों का मनोबल बढ़ा रहता है। इन सबके लिए मैं पूरी तरह से छपास रोग से ग्रस्त साहित्यकारों को ज़िम्मेदार मानता हूं।
मुख्य अतिथि दी ग्राम टुडे के संपादक एवं प्रकाशक शिवेश्वर दत्त पांडे ने कहा कि -" साहित्यकार की साहित्य यात्रा में प्रकाशक की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। साहित्यकार के सृजन को पुस्तक का आकार देकर पाठकों तक पहुंचाने का कार्य प्रकाशक ही करता है। आज की गोष्ठी का विषय "प्रकाशकों द्वारा शोषण का शिकार के लिए दोनों ही जिम्मेदार हैं। कुछ प्रकाशकों के कारण आज सभी प्रकाशकों को गलत नजरिए से देखा जा रहा है जो उचित नहीं हैं । हां कुछ प्रकाशक हैं जिनका व्यवहार साहित्यकारों के प्रति ठीक नहीं है। वे पैसे के लालच में साहित्यकारों के साथ गलत व्यवहार कर रहें हैं। लेखकों को ऐसे प्रकाशकों एवं प्रकाशन समूहों से सावधान रहने की जरूरत है।
म.प्र. से डॉ शरदनारायण खरे ने कहा - " यह कटु यथार्थ है कि आज जहाँ साहित्यकार छपास व थोथे सम्मानों के पीछे दौड़ रहे हैं,वहीं प्रकाशक केवल और केवल पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन को व्यवसाय मानकर उससे अधिकाधिक पैसा कमाना चाहते हैं,इसीलिए वे अपनी शर्तों और लाभ के लिए ही साहित्यकारों की रचनाओं व कृतियों को प्रकाशित करते हैं।अब न तो प्रकाशक इस कार्य को सृजन, समाज-सुधार या नैतिकता से जोड़कर देखते हैं,न ही राष्ट्रहित से।उधर अधिकांश रचनाकार कुछ भी ऊलजलूल लिखकर रचनाओं /कृतियों को छपा हुआ देखना चाहते हैं,तो स्वाभाविक है कि उनसे उनकी इच्छापूर्ति की क़ीमत वसूली ही जाएगी।
वैसे आज भी अच्छे रचनाकार व अच्छे प्रकाशक हैं,पर उनकी संख्या सीमित है।अगर रचनाकार अपने अच्छे लेखन के बल पर छप सकता है,प्रसिद्ध पा सकता है,तो वह प्रकाशक की अनुचित शर्तें क्यों मानेगा ? पर अगर वह तथाकथित/कमज़ोर रचनाकार है,तो वह प्रकाशक की उचित-अनुचित सारी बातें मानेगी ही।कहा भी जाता है कि यदि शोषित न हों,तो शोषक किसका शोषण करेगा।आवश्यक यही है कि भले ही कम लिखा जाए,कम छपा जाए,पर अच्छा लिखा जाए,अच्छा छपा जाए,और कायदे से छपा जाए।"
" साहित्य आजकल " के निदेशक युवा कवि हरे कृष्ण प्रकाश के अनुसार -सच तो यह है कि आज भी कई लोकप्रिय साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी पहचान काफी संगर्ष कर स्थापित किये हैं l परन्तु आज के समय के साहित्यकार बिना मेहनत किये तुरंत अवार्ड ही पाना चाहते हैं, जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़ जाये। रचना कैसी है या उसको किस प्रकार बेहतर बनाया जा सकता है यह चिंतन करने से ज्यादा रचना कैसे दस जगह से प्रकाशित हो इस बात को लेकर चिंतित रहते हैं। इसी आपाधापी में वह कई ऐसे प्रकाशकों के सम्पर्क में आ जाते हैं जिनकी नियत ही ठीक न हो कुछ प्रकाशक तो बुक भेजने के नाम पर बस ईबुक भेज कर संतुष्टि करने को कहते हैं जबकि राशि लेने वक़्त बुक देने की बात कहते हैं। अतः आज के समय में प्रकाशकों से ज्यादा साहित्यकारों में दोष है क्योंकि वह चाहते हैं कि जितना कम में बुक प्रकाशित हो जाये वह बेहतर और धोखा खाने पर भी आवाज मौन कर लेते हैं। मैं तो उन तमाम प्रकाशकों जो साहित्यकारों से किये वादे को पूरा न करते हैं उसे प्रकाशक नहीं दलाल समझता हूँ।"
ऋचा वर्मा ने कहा-जिन्हें रातों रात हिंदी के चेतन भगत या फिर निराला, महादेवी वर्मा, दिनकर , जयशंकर प्रसाद या बच्चन बनने की महत्वकांशा हो और वे येन- केन- प्रकारेण अपनी रचनाओं को प्रकाशित करवाना चाहते हों , और ऐसी मनोवृति का लाभ उठाते हुए कोई प्रकाशक उनसे मनमानी कीमत पर पुस्तक प्रकाशित करने को तैयार हो जाए ।ऐसी पुस्तक जिसे वह लेखक भी दुबारा पढ़ने की जहमत नहीं उठाए, आम लोगों की तो क्या ही बात है, तो इसे मैं शोषक और शोषित की संज्ञा न देकर यह कहूंगी की यह 'आ बैल मुझे मार 'वाली स्थिति खुद लेखको द्वारा ही पैदा की जाती है। सत्तर और अस्सी या उससे पहले के दशकों मे शिक्षा और साहित्य के प्रति लोगों में जो इज्जत जो ,रुझान हुआ करता था, वह आज की पीढ़ी में नदारद है। "
राजस्थान से रशीद गौरी कहते हैं -इस स्थिति के लिए नि:संदेह स्वयं साहित्यकार ही जिम्मेदार है। चार पंक्तियां लिखते ही लेखक के भीतर साहित्यकार होने का भूत सवार हो जाता है। वह चाहता है कि उसकी रचनाएं छपें। लोग पढ़ें। और उसका भी नाम हो। इस प्रकार के छपास रोग से ग्रसित साहित्यकार खुद ही इस शोषण के लिए जिम्मेदार हैं। इसी कमजोरी और कामना की वजह से प्रकाशक का मनोबल बढ़ता है। वह साहित्यकार बस छपना चाहता है। कहीं भी। किसी भी रूप में। आजकल सांझा संकलनों में तो सहयोग राशि दे- देकर अपने साहित्य को परोसने का चलन ही चल पड़ा है। वैसे इन संकलनों शायद ही कोई पढ़ता होगा। सिवा लेखक के। लेखक भी केवल अपनी ही रचना पढ़ता है। कई बार प्रकाशक/संपादक सांझा संकलन हेतु रचनाएं और सहयोग राशि लेने के बाद गायब हो जाते हैं। ऐसे प्रकाशकों की हमें कठोर निंदा की जानी चाहिए। हालांकि सभी प्रकाशक/ संपादक इस श्रेणी में नहीं आते हैं। "
अपूर्व कुमार ने कहा -विनोद शुक्ल तो एक उदाहरण मात्र हैं, जो संयोगवश प्रकाश में आ गए हैं।न जाने ऐसे कितने विनोद शुक्ल ऐसी पीड़ा के दंश को झेल रहे होंगे?आज समय आ गया है जब साहित्यकारों के अधिकारों के हनन की संस्कृति के विरुद्ध खड़े होंl यही नहीं......हमें प्रकाशकों की चापलूसी करने की संस्कृति के प्रति भी विरोध का स्वर मुखरित करना होगा। प्रकाशक और साहित्यकार के बीच का संबध मिट्टी और पौधे जैसा होना चाहिए। मिट्टी पौधे को शनै:-शनै: पोषण देते हैं एवं पौधे भी जड़ के माध्यम से मिट्टी को बांध कर सुरक्षा देते हैं।लेखकों को यह समझना चाहिए कि प्रकाशक तो व्यापारी हैं, उन्होंने तो आर्थिक लाभ के लिए ही ऐसा किया है। उन्हें धैर्य रखना चाहिए । दूसरी ओर प्रकाशक को भी चाहिए की यह ध्यान रखे की लेखक का भी एक पेट है : एक परिवार है! इन दिनो मैं देख रहा हूं कि साहित्यकारों पर छपास का भूत ज्यादा ही सवार रहता है। प्रकाशक इसी भूत का फायदा अक्सर उठाते हैं।किसी तरीके से किसी विधा की उजूल-फजूल 50-100पृष्ठ जबरदस्ती लेखन पूरा कर ,अपना पैसा खर्च कर,किताब छपवा लेना!फिर अपना खर्च कर उसका विमोचन!फिर अपने समांतर साहित्यकारों से उसकी समीक्षा!फिर किसी प्रायोजित संस्था के माध्यम से तुलसी सम्नान! भारतेंदु सम्मान! निराला सम्मान! महादेवी वर्मा सम्मान!फलानां सम्मान!चिलानां सम्मान!और अंत में हिंदुस्तान,आर्यावर्त, दैनिक जागरण,आदी में छपास का भूत......पुन: बांटते रहिए अपनी किताबें मुफ्त में अपने परिचितों के बीच!वे आपकी कृतियों को हर साल दिवाली में पांच रुपये किलो के भाव रद्दी वाले से बेचेंगे!(जरूरी नहीं! इसके अपवाद भी हैं!)बस हो गई लेखन की इतिश्री!पैसे के बल पर ऐसी दर्जनों पुनरावृति!ऐसी ही मानसिकता का फायदा प्रकाशक उठाते हैं।जिसके शिकार कुछ सच्चे साहित्यकार हो जाते हैं!अरे भाई! आप अपना सारा श्रम और ध्यान लेखन पर केंद्रित करें!तुलसी और सूर की तरह !दिनकर और नागार्जुन की तरह यश और पैसे की लालसा छोड़कर !"
उड़ीसा से रिमझिम झा ने कहा-" पठनीय रचनाएं होंगी तो पाठक अवश्य पढ़ेंगे। हिंदी की शुद्धता, व्याकरणिक शुद्धता, उपयुक्त शब्दों का चयन पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। क्या हमारी रचनाएं उपयुक्त मानदंडों पर सटीक बैठती है? अगर नहीं बैठती तो हां निम्न वर्गीय प्रकाशक हमें लुभावने प्रलोभन देकर हमारी रचनाएं लेंगे और छापने के बाद हम हीं से उसका खर्च भी वसुल करेंगे। यह बात तो हम सभी जानते हैं कि समाज में आज भी अच्छी रचनाओं की सराहना की जाती है। पतंगा अगर दीप के पास जलने जाता है तो दीप उसे क्यों न जलाए। हम स्वयं शोषित होने के लिए प्रकाशक के पास जाते हैं उनके नियमों पर स्वयं को ढाल देते हैं फिर हम दोषारोपण क्यों करते हैं? अगर हमारी रचनाओं में वह बात होगी तो अवश्य ही हमें उसका पारितोषिक भी मिलेगा। अन्यथा हम हमेशा ही दोषारोपण करते ही रह जाएंगे। ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती।"
राज प्रिया रानी ने कहा- " साहित्यकार का दर्जा श्रेष्ठ होता है लेकिन आज के दौर में साहित्य के नाम पर दुकान चल रही है कीमत अदा कर रचनाएं छपवाई जस रही है वह भी निचले स्तर की रचनाएं जिसकी समीक्षा करना तो दूर उस छापने से पूर्व एक नजर पढ़ना भी प्रकाशक के लिए बेमायने लगता है। संपादक और प्रकाशक के गैर जिम्मेदाराना हरकतों के कारण आज कोई भी टूटी फूटी रचनाएं छप जाती हैं जो पाठकों के नजरों से पत्र पत्रिकाओ की अहमियत गिर जाती हैं पाठक शिरे से नकार देते हैं। इस प्रकार घटिया नियत के प्रकाशक साहित्य के दर्जे को रौंद भी रहे हैं और पाठकों की विश्वसनीयता खो भी रहे हैं। लेखक जिस विश्वास के साथ कोई रचना कागज पर उतारता है वह यह चाहता है कि इसे लोगों तक उनके संदेश पहुंचे जिसे मतलबी प्रकाशक आडे हांथों लेकर गलत फायदा उठाते हैं।
साहित्यकार स्वयं भी इस गलत नीयत का विरोध कर सकते हैं अगर वह इस दोहरे चरित्र वाले प्रकाशकों से बचना चाहते हैं तो । इसका कड़ा विरोध ही साहित्य की अस्मिता की रक्षा कर सकता है । कदम उठाए लेकिन सोच समझकर।"
डॉ लोकनाथ मिश्र - " एक समय ऐसा था जब कभी गर्व से कहते थे हम कवि हैं, इतिहास बदलते हैं। पर आज उन्हें पढ़ने वाले कितने है ?प्रकाशक कहते हैं कि कविता की किताब बिकती नहीं है । बाजारवाद हर क्षेत्र में हावी है। और जब साहित्यकार बाजारवाद के दलदल में फंस जाए तो साहित्य हाशिए पर चला जाता है।
मानव संस्कृति में तेजी से आया बदलाव आज हर जगह देखने को मिलता है। बाजारवाद की विकृतियों और उपभोक्तावाद की संस्कृति ने साहित्य को बहुत प्रभावित किया है। आज विज्ञापन हमारी रूचियाें को तय करते हैं। सब कुछ इतना फास्ट और रेडीमेड होते जा रहा है कि हम चिंतन कर ही नहीं पाते । इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता है कि रचनाकार के अंतर्मन में शोहरत पाने की भूख रहती है और वह चाहता है कि उसका भी नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएl ऐसे में वह अपनी मूलभूत साहित्यिक संवेदना को मार डालता है। और ऐसे प्रकाशक , ऐसे पत्रकार के साथ उसका संपर्क हो जाता है, जहां और जिसके माध्यम से उसे प्रसिद्धि मिल सके और फिर चलता है एक व्यापार। प्रकाशक के पास भी समय नहीं है कि वह उन रचनाओं को समझे, उसे तो पैसा चाहिए। यद्यपि ना ही सारे रचनाकार और ना ही सारे प्रकाशक ऐसे होते हैं क्योंकि अगर ऐसा होता तो शायद अच्छे साहित्य का दर्शन दुर्लभ हो जाता । बाजारवाद जीवन की एक भयावह सच्चाई है और अर्थ जीवन को गति देता है। प्रकाशन एक संस्था के तहत काम करता है l"
मीरा सिंह मीरा -"आज के साहित्यकार प्रकाशकों से शोषण के शिकार क्यों हो रहे हैं? सामयिक विषय है। प्रकाशक भौतिक वादी सोच से ग्रसित रहते हैं। प्रकाशन अब एक व्यवसाय का रूप ले चुका है।अधिकतर प्रकाशक के लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना ही एक मात्र लक्ष्य रहता है।एक सामान्य साहित्यकार के लिए पुस्तक का प्रकाशन दुरूह कार्य है।दर दर की ठोकरें खाने के बावजूद भी उसे कोई प्रकाशक नहीं मिलता। सोर्स पैरवी और जुगाड़ तंत्र वालों की अलग बात है।अथक प्रयास के बावजूद जो प्रकाशक मिलते हैं, वो एक तरफा शर्त रखते हैं। लेखक पास उसे स्वीकार करने के सिवा कोई विकल्प नहीं होता।आज कई पत्र पत्रिकाएं निकल रहीं हैं,पर कितनी वैसी हैं जो साहित्यकारों को पारिश्रमिक देती है? शायद ही कुछ नाम आए।सच कड़वा होता है पर अनदेखा नहीं किया जा सकता। साहित्य में जो खेमें बाज़ी और चमचागिरी में निपुण हैं,वहीं प्रकाशकों तक पहुंच पाते हैं, सम्मानित होने योग्य समझे जाते हैं। मैं स्वयं ढ़ाई दशक से साहित्य सृजन कर रही हूं। पुस्तक प्रकाशन के लिए दौड़, लगाने की फुर्सत नहीं मिलती हैं। मैं निज पूंजी लगाकर अपनी तीन पुस्तकें प्रकाशित करवाई और मुफ्त पाठकों को उपलब्ध करवाई हूं। "
मधुरेश नारायण ने कहा कि -" बाजारवाद के इस युग में जहाँ सिर्फ व्यापार में लाभ कमाना मुख्य उद्देश्य हो जाता है।वहाँ इस तरह की बातें होना आम बात है।कारण आपूर्ति कम माँगें ज्यादा साहित्यकारों के शोषण का जो विषय है,बहुत हद तक उपरोक्त बातों पर निर्भर तो है ही साथ ही कई अन्य कारण भी है,जिसमें प्रमुख कारण में से :-1)आज हर रचनाकार चाहता है कि उसकी रचना नामचीन प्रकाशक के पास ही छपें।ऐसे में यह तथाकथित प्रकाशक को उनका आर्थिक शोषण करने का सुअवसर मिल जाता है।इस का दुष्परिणाम जाने-माने साहित्यकारों को भुगतना पड़ता हैlआजकल पुस्तक छपवाना एक प्रचलन-सा हो गया है।जिसका नाजायज फायदा यह प्रकाशक उठाते हैं।छपवाने वाली रचनाकार ज्यादा प्रकाशित करनेवालों की संख्या कम। "
अनुस्वार के संपादक प्रकाशक डॉ संजीव कुमार ने कहा कि सरासर प्रकाशक को दोषी मानना गलत है l हर प्रकाशक का अपना एक बाजार होता है l वह पुस्तक पाठकों के हाथों तक पहुंचाना चाहता है l कबाड़े में रद्दी के भाव बेचना नहीं चाहता l दूसरी तरफ कई लेखक ऐसे होते हैं जो जल्दी बाजी में अपनी अस्तरीय रचनाओं को भी पुस्तक का रूप देना चाहते हैं l ऐसे में लेखक कुछ प्रकाशको के शोषण का शिकार हो जाते हैं जिसमें लेखक का पूरा दोष है l जो प्रकाशक खेमेबाजी और गुटबाजी के शिकार हैं, वे निश्चित तौर पर निंदनीय है, और उनका विरोध होना ही चाहिए l ऐसे प्रकाशकों का एक न एक दिन विनाश हो जाता है l
उन्होंने आगे कहा कि -" लेखक और प्रकाशक के संबंधों के बारे में बहुत भ्रांतियाँ है। ऐसा सोचना बेमानी है कि प्रकाशक बहुत कमा रहा है । आजकल पढ़ने की आदत भी बदली है और माध्यम भी । किताब छापने की लागत अनाप शनार बढ़ती जा रही है और हिंदी का पाठक उदासीन हो गया है इसलिए भी कि आज की किताबों में गुंणवत्ता पर भी प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं ।सच तो ये है कि प्रकाशक और लेखक के संयुक्त प्रयास से ही समस्या का निदान संभव है !"
मीना कुमारी परिहार ने कहा-" हिन्दी जगत में लेखकों के लिए को आंपरेटिव बनाने की बात बार-बार उठी पर लेखकों की एकजुटता के अभाव में यह सम्भव नहीं हो सका।लेखक अभी भी शोषण के शिकार हो रहे हैं।शायद इसीलिए जैनेन्द्र, यशपाल, दिनकर,अश्क, हंसराज रहबर से लेकर रामकुमार कृषक ऐसे लोगों को अपना प्रकशन खोलना पड़ा, यह अलग बात है कि उन्हें बहुत सफलता नहीं मिली, क्योंकि किताबों की खरीद -बिक्री का एक गठजोड़ काम करता है।यानि यह पूरा कारोबार एक धंधे में बदल गया है। "
मुरारी मधुकर ने कहा - " बंधुओं, यह एक निर्विवाद सत्य है कि प्रकाशको द्वारा रचनाकारों का शोषण एवं दमन का सिलसिला बहुत पुराना है। इसके मूलभूत कारणों पर गौर करें तो कारणों की संबद्धता दोनों पक्षों से है। प्रकाशक पक्ष जहां अधिक से अधिक आर्थिक लाभ और राजनीतिक उद्देश्य से ग्रसित होकर व्यवसायजन्य नीति निर्धारित करते हैं ,वहीं कई साहित्यकार आपस में गुटबाजी, खेमेबाजी , व्यक्तिगत द्वेष और चमचागिरी के माध्यम से प्रकाशक को शोषण करने का काम आसान कर देते हैं। साहित्यकारों की यह मानसिकता भी शोषण के लिए जिम्मेदार होता है कि वे आसान तरीके से लोकप्रियता पाने का प्रयास करते हैं और इसके लिए अशोभनीय तरीके अपनाते हैं।
अब इस समस्या के समाधान के संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगा कि प्रेस और प्रकाशक रचनाकारों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएं और यह महसूस करें कि एक स्वस्थ और आदर्शमय समाज की रचना में साहित्यकारों के साथ और समान रूप से उनकी भी बड़ी भूमिका और जिम्मेदारी है। वे साहित्यकारों में निहित प्रतिभा का दमन करने जैसा कोई भी प्रयास करने से परहेज करें और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करें।"
फिल्म निर्माता निर्देशक एवं अभिनेता अनिल पतंग और सुरेश चौधरी ( कोलकाता ) ने कहा कि -" इसमें पूर्ण रूप से साहित्यकार ही दोषी है ! आज का जमाना बाजारवाद का जमाना है l साहित्य को पहले बाजार चाहिए l जो लेखक सोशल मीडिया या अन्य माध्यमों से अपनी पहचान बना लेते हैं, उनकी पुस्तके आसानी से बिक जाती है l और प्रकाशक ऐसे लोगों को छापने में अपनी रुचि इसलिए दिखलाते है कि वह घाटे का सौदा ना कर सके l मैं स्वयं लेखकों को ना मुनाफा ना घाटा के आधार पर प्रकाशित करता हूं l लेकिन आज के रचनाकार अपनी रचना धर्म के प्रति अधिक सजग और गंभीर नहीं है l ऐसi पुस्तकों को प्रकाशित करने से क्या फायदा जिसका ना कोई पाठक हो ना कोई बाजार ?
अनिल पतंग ने कहा कि मैं तो ढूंढ ढूंढ कर अच्छी लघुकथाओं पर लघु फिल्म बना रहा हूं l मेरे पास अधिकांश ऐसी पुस्तके आती है जिसमें लेखक का उतावलापन नजर आता है, और अधिकांश सतही रचनाएं होती हैं l अच्छी रचनाओं की आज भी मांग है l रचनाएं बाजार चाहती है l यह प्रेमचंद युग नहीं है l रचनाकारों को भी चाहिए कि वे अपनी रचनाओं को पाठकों तक पहुंचाने का आधार बन सके l
प्रस्तुति : ऋचा वर्मा ( सचिव : भारतीय युवा साहित्यकार परिषद एवं सिद्धेश्वर/ अध्यक्ष : भारतीय युवा साहित्यकार परिषद
यदि आप अपना साक्षात्कार देना चाहते हैं तो आदरणीय यह साक्षात्कार देने हेतु साहित्य आजकल की आधिकारिक फॉर्म है। अतः इसे सही सही भरकर हरे कृष्ण प्रकाश के साथ अपना साक्षात्कार तिथि सुनिश्चित करवाएं।।
(Online/Offline दोनों सुविधा उपलब्ध)
धन्यवाद:- *(साहित्य आजकल टीम)
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