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ग़ज़ल -डॉ. कविता नन्दन
आती है याद उनकी मुहब्बत की रोज़-रोज़
जो बात कर रहे थे हिफ़ाज़त की रोज़-रोज़।
धमकी 'वो' दे रहे हैं क़यामत की रोज-रोज़।।1
दंगे - फसाद छेड़ किया बंद काम-काज़
तालीम दे रहा है जहालत की रोज़-रोज़।।2
घर-घर, गली-सड़क पे वही भूख-प्यास, मौत
तक़दीर बन गई है रियासत की रोज़ - रोज़।।3
किस हाथ में थमाई वतन की है बागडोर
लाठी ही खा रहे हैं हुक़ूमत की रोज़-रोज़।।4
ख़ुद को समझ रहा है ख़ुदा आज हुक़्मरान
धमकी जो दे रहा है क़यामत की रोज़-रोज़।5
जब से रक़ीब घूम रहे उनके आसपास
आती है याद उनकी मुहब्बत की रोज़-रोज़।।6
वह तो हरामख़ोर नहीं बन सके हुज़ूर
खाते रहे जो लोग मशक्क़त की रोज़-रोज़।।7
'नन्दन' लहुलुहान ज़मीं और आसमान
आवाज़ उठ रही है बग़ावत की रोज़ - रोज़।।8
डॉ. कविता नन्दन
आज़मगढ़
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