कविता-नैनों के बिखरे मोती!
नैनों के बिखरे मोतियों को सहज लुटाता है ।
दुख की सीमा घायल अंतर्मन यूँ सताता है ।
पीड़ा जो है तेरे मन का बूंदों में क्यों बरसाए ।
चोट जो है घाव गहरी आघात दिल को लग जाए ।
देख जमाना तेरे मन का दर्द न जाना है ।
है जो तेरे सब पराए अपनों को कब पहचाना है?
पत्थरों को पूजता है मूरत बनाता है ।
नैनों के बिखरे मोतियों को सहज लुटाता है ।।
पास जब था , तुम भी थे वो मुस्कुरायी थी ।
चाँद के रूप देखकर एक सूरत छुपाई थी ।
दूर किंतु वो पराए अब हुए अजनबी ।
उसकी यादों में सिमटी फूलों की हँसी ।
पूछता है बाग की खुशबू नभ के ये बादल ।
जब मिले थे दो दीवाने अब हुए पागल ।।
लहरों और आंधियों में जब कोई घर बनाता है ।
नैनो के बिखरे मोतियों को सहज लुटाता है ।।
मधु के प्यालो में क्या पाए साकी मधुशाला ।
मन के संताप को मिटाने देह जवानी धर डाला ।
मदहोश होकर यादों में भूल ना पाए एहसासों को ।
छीन लिया जिन पलकों ने मन के विश्वासों को ।
जलती है जब भी मशाल लगे आत्मा में आग ।
जलने से पहले बुझा दिया तेरे घर का चिराग ।
कोई किसी से नेह लगाए तो दिल जलाता है ।
नैनो के बिखरे मोतियों को सहज लुटाता है ।।
हुए थे जब अलग तुम पतझड़ भी रोया था ।
कोयलों ने गीत ना गायी , मधुवन भी सोया था ।
वो पुराना था बहाना अब याद आता है ।
चाँद से जब कोई अपना रूप को चुराता है ।
दाग जिनके दामन पे है , तो हकीकत नाज नही ।
नफरतों के फूल खिलते चाहतों की आस नही ।
भर-भर के वो पैमाना अब छलकाता है ।
नैनो के बिखरे मोतियों को सहज लुटाता है ।।
गौतम केशरी परवाहा ,
फारबिसगंज अररिया(बिहार)
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