वो जैसे मेरे जिस्म का एक अंग था ,
दूर होकर भी जैसे हमेशा वो संग था।
बिखरती सिमटती रही ये जिंदगी मेरी,
वो मेरी इस फिजा का जैसे कोई रंग था।
कही खिलते है क्या गुलाब बिना कांटो के,
बिना मुश्किलात के जीत का रंग बदरंग था ।
चाहत रहती हमेशा दिल को उसे पाने की,
पर दिल में रहने वाला मुझसे जैसे तंग था !
दूर होकर अब भी बस रहा बस वो दिल में,
हमारी पाक सी मुहब्बत का यही तो ढ़ंग था ।
कहने को तो रिश्ते टूट गए दिलो के सारे अब,
बस रहा फिर हममें वो कैसे देख दिल दंग था ।
दिल में रहने वाला वो शख़्स इश्क़ था राधे का,
या दिल और जिंदगी में चल रही कोई जंग था ।
राधे मंजूषा।
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सुन्दर दिलस्पर्शी सृजन के लिए आदरणीया कवयित्री श्रीमती राधे जी को सहृदय बधाई!
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