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विलुप्त होती जा रही है साहित्य में गुरु शिष्य की परंपरा ! ": सिद्धेश्वर
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आत्ममुग्ध रचनाकार अपनी आलोचना जरा भी बर्दाश्त नहीं करते ! : डॉ आरती कुमारी
पटना, 13/06/2022! " एक समय था जब साहित्यकार व्यक्ति और समाज के उत्थान के लिए सृजन करते थे । समाज का आईना बनता था उनके द्वारा सृजित साहित्य! साहित्यकार सुविधा भोगी नहीं यथार्थवादी और श्रमजीवी होते थे l ठीक इसके विपरीत आज के अधिकांश साहित्यकार सुविधा भोगी हो गए हैं l उनके सृजन का दो ही उद्देश्य रह गया है l पहला - अपने सृजन के बल पर किसी तरह दांव पेंच खेलकर अर्थ उपार्जन करना और दूसरा- खुद के द्वारा सृजित साहित्य स्तरीय हो या अस्तरीय पठनीय हो या अपठनीय, श्रेष्ठ हो या घटिया, उसके माध्यम से यदि धन उपार्जन करने में सफलता नहीं मिले, तो झूठा मान - सम्मान पाने के पीछे अपना पूरा श्रम लगा देना !"
भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में ऑनलाइन गूगल मीट और फेसबुक पर " क्यों विलुप्त होती जा रही है गुरु शिष्य की परंपरा ?" विषय पर आयोजित परिचर्चा का संचालन करते हुए, संस्था के अध्यक्ष सिद्धेश्वर ने उपरोक्त उद्गार व्यक्त किया ! उन्होंने कहा कि- "आज तो गुरु को ही अपना प्रतिद्वंद्वी मान बैठते हैं शिष्य l इसके विपरीत कविता, लघुकथा या कहानी या साहित्य की किसी भी विधा को, जिन्हें साधने का ज्ञान नहीं, वह भी रेवड़ी की तरह बंट रहे मान - सम्मान पत्र को पाकर खुद को महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद समझ बैठते हैं l जो स्वयं का खुद गुरु बन जाता है, फिर उसे गुरु की जरूरत ही क्यों ? और जब शिष्य - गुरु की जरूरत ही नहीं तो गुरु - शिष्य परंपरा रहेगी कैसे ? यहां तो कोई शिष्य बनना ही नहीं चाहताl सभी साहित्यकार अपने को गुरु ही समझते हैं !"
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ आरती कुमारी ने कहा कि -सोशल मीडिया के ज़रिए लाइक्स कमैंट्स को ही हम अपनी लोकप्रियता का आधार मानते हैं और कुछ भी लिखा पोस्ट कर देते हैं और आत्ममुग्ध होते रहते हैं। किंतु यदि उस रचना में कोई कमी निकल दे तो किसी भी प्रकार की आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं जो कि सीखने और आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है। पहले हम कई किताबों को पढ़ते थे तब कुछ लिखने का कार्य करते थे । स्वाध्याय बहुत ज़रूरी होता है। किंतु अब न स्वाध्याय का वक़्त है, न किसी गुरु का मार्गदर्शन है, न किसी प्रकार की कार्यशाला ही आयोजित होती है जहां कुछ अभ्यास कार्य किया जा सके !"
मुख्य अतिथि डॉ सुरेश कुमार चौधरी दादा ने कहा कि-" गूगल कवियों के लिए अपनी आलोचना सहने की शक्ति नहीं होती l जरा सा गूगल पर पढ़ कर हम अपने को पूर्ण ज्ञानी समझ लेते हैं l अज्ञानता के अंधकूप में मदान्ध होकर हम सही गलत भी भूल जाते हैं। काव्य लेखन में मैने देखा है लोग काव्य की अनिवार्य शर्तों को ताक पर रख कर आधुनिकता के नाम पर कुड़ा परोसते हैं। "
चम्पारण की डॉ मधुबाला सिन्हा ने कहा -आसानी से उपलब्ध होते गूगल मास्टर से हर समस्या का समाधान हो जा रहा है।ऐसी स्थिति में वेवजह गुरु के ज्ञान का अतिरिक्त बोझ क्यों ढोया जाए। गुरु और शिष्य की विलुप्त होती परम्परा में आने वाली पीढ़ी को बताने के लिए हमारे पास कुछ न होगा।"
विशिष्ट अतिथि ऋचा वर्मा ने कहा कि-साहित्य में गुरु शिष्य की परंपरा का एक स्वर्णिम इतिहास रहा है, महावीर प्रसाद द्विवेदी हों ,नागार्जुन हों या तुलसीदास सारे किसी न किसी के गुरु अथवा शिष्य रहें हैं । गुरु शिष्य न भी रहें तो मित्रवत् वे एक दूसरे को अपनी रचनाएं पढ़वाते रहें हैं और विमर्श कर उनमें अपेक्षित सुधार या बदलाव लाकर उसे कालजयी रचना बनवातें रहें हैं।
लेकिन हाल के कुछ वर्षों में या कह सकते हैं कि सोशल मीडिया के आविर्भाव के बाद लेखकों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। ऐसे लेखकों में जो नए नए पैदा हुए हैं उनमें धैर्य की नितान्त कमी हैं,वे अपनी रचनाओं को ही दोबारा पढ़ने का कष्ट नहीं उठाते हैं तो भला किसी गुरु सरीखे वरिष्ठ से सलाह क्या लेंगे, उन्हें जल्दी होती है फेसबुक पर अपनी रचना पोस्ट करने की और उस पर लाइक्स और कमेंट्स बटोरने की।जिसकी रचना पर जितने ज्यादा लाइक्स और कमेंट्स उसकी रचना उतनी ही बड़ी हिट।"
मुख्य वक्ता वैशाली के अपूर्व कुमार ने कहा कि - ".हम कथित कलमकारों से तो वे अनपढ मोटर मैकेनिक अच्छे है जो शायद सभी क्षेत्र से ज्यादा गुरु - शिष्य परंपरा को कायम किए हुए हैं।आप देखेंगे कि छोटे-बड़े सभी मैकेनिकों के एक गुरु होते हैं जिन्हें वे उस्ताद कह कर संबोधित करते हैं। हम नवोदित कलमकार तो इस गुमान में रहते हैं कि हम १००%अच्छा लेखन कर रहे हैं । येन-केन-प्रकारेण कहीं छप जाए तो हमारा यह मिथक और पुष्ट हो जाता है।कुछेक वरिष्ठ इस भय से भी उस रचना पर खुलकर टिप्पणी नहीं करते कि कहीं हमारी बातों का विपरीत असर न हो जाए ! बस साहित्य की गुणवत्ता यहीं से गिरने लगती है। "
मधुरेश नारायण ने कहा कि - आज के वरिष्ठ साहित्यकार रचनाओं पर इमानदारी से परामर्श नहीं देते हैं l ऐसे में किसी को गुरु मान लेना खतरे से खाली नहींl
वहीं दूसरी तरफ कथाकार जयंत ने कहा कि- शिक्षा हो या साहित्य, गुरु शिष्य की परंपरा ही बदल गई है l आजकल आभासी गुरुओं की भरमार हो गई है सोशल मीडिया पर l कहानी, कविता का सृजन सिखलाने से नहीं बल्कि जन्मजात होती है उसमें सिर्फ परिमार्जन किया जा सकता है l यह काम हम लोग इस तरह की गोष्ठियों के माध्यम से या अपने साहित्यिक मित्रों के माध्यम से भी कर सकते हैं l मोहाली से कथा लेखिका नीलम नारंग ने कहा कि- सच तो यह है कि लोग सिर्फ अपनी कहना चाहते हैं, दूसरों की ना सुनना चाहते हैं, ना दूसरों की पढ़ना चाहते हैं ! ऐसे में पाठक ही हमारा सही मार्गदर्शन करता है और हमारी लेखनी को ऊर्जावान बनाता है ! वही अजमेर से गोविंद भारद्वाज ने कहा कि- कोरोना काल में कुकुरमुत्ते की तरह साहित्यकार पैदा हो गए हैं सोशल मीडिया पर, जो अपनी स्तरीय या अस्तरीय रचनाओं पर, बिना पढ़े लिखे, सिर्फ लाइक और वाह वाही चाहते हैं l रचना चोरी करने वाले रचनाकारों की संख्या भी बढ़ी है l आप जैसे जीवंत साहित्यकारों के संरक्षण में इस तरह की साहित्यिक संस्थाएं बहुत कम है सोशल मीडिया पर, जो पाठशाला का काम कर रही है lगुरु शिष्य की परंपरा के अभाव में इससे भी अपनी रचनाओं को ऊर्जावान बनाया जा सकता है l
मीना कुमारी परिहार के शब्दों में -आज जरूरत है गुरु और शिष्य अपने आचरण और व्यवहार को निखारें। साहित्य को बाजारु न बनाएं। साहित्य बिकने की वस्तु नहीं, तभी सही दिशा और दशा में साहित्य की सेवा कर सकते हैं ,और लुप्त होती गुरु -शिष्य की परंपरा को कायम रख सकते हैं।" राज प्रिया रानी ने कहा कि -" जब तक समर्पण का भाव,सीखने की लालसा और किसी के प्रति आत्मीयता व्यक्त करने की मानसिकता नहीं बनेगी, तब तक गुरु के दर्जे को स्वीकारना संभव नहीं। " डॉ नीलू अग्रवाल ने कहा -" गुरु अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला । हमारे यहां गुरु शिष्य की लंबी परंपरा है। पहले गुरु वही होता था जो अपने शिष्य को शिक्षा देता था और फिर शिष्य गुरू बन कर अपने शिष्य को। तो वह मौलिक रूप से गुरू ही होते थे। उनमें नैतिक बल होता था। वह जो करते बोलते थे स्वयं भी उस पर अमल करते थे। आज ठीक इसकी विपरीत स्थिति है !
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♦ प्रस्तुति : ऋचा वर्मा [सचिव ] एवं सिद्धेश्वर [ अध्यक्ष ] भारतीय युवा साहित्यकार परिषद
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