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कहावती दुनिया!:- हर्षित
जब मैं आठवीं में था तभी हिन्दी की एक गैर-एनसीईआरटी(NCERT) किताब में एक बेहतरीन हास्य-व्यंग्य पाठ पढ़ाया गया था। उस समय इसकी प्रासंगिकता बहुत समझ नहीं आई थी। पर अभी इसे याद करके काफ़ी हद तक रिलेट कर पाता हूँ। इस कहानी का सार कुछ इस प्रकार है---
दुष्यंत कुमार की एक पंक्ति है-
कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता।
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।
एक चच्चा इन पंक्तियों से गजबे मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। सचमुच ही आसमान में सुराख करने की ठान लेते हैं। फिर क्या था, सुराख हेतु उच्च स्तरीय संगमरमरी पत्थर की व्यवस्था की जाती है। भविष्य में इस सुराख़ के नाम पर सैकड़ों डिवेट में हो-हल्ला होगा और हजारों पन्नों पर आर्टकिल लिखे जाऐंगे, जिससे संसाधन, समय और ऊर्जा की बहुत बर्बादी होगी। इसी लिए मिडिया कर्मियों को बकायदा बुलावा भेजा जाता है। एक निश्चित तिथि भी सुनिश्चित की जाती है। सारी तैयारियाँ कर ली जाती है। लोग भी इस ऐतिहासिक पल का साक्षी बनने के लिए अपने छतों पर आ जाते हैं। बस पत्थर उछालने की देर होती है। तभी उस चच्चा का 'तबीयत' लाख कोशिश के बावजूद बाहर नहीं आ पाता है। और अंततः भीड़ दबाव में बेतबियत ही पत्थर उछालना पड़ जाता है। तभी गुरुत्वाकर्षण अपना स्वभाविक रुप दिखाती है, जिसकी वजह से सुराख एक सज्जन के खिड़की के काँच में हो जाता है।
इसी तरह सैकड़ों कहावतों से हम सबों का सामना जरूर होता है।
एक है कि - 'सूरत नहीं सीरत देखो।' थ्योरी के अनुसार यह बहुत सही भी है कि किसी को उसके आचरण के अनुसार परखना चाहिए न कि चेहरा देखकर। पर यह मार्क्सवाद के 'यूटोपिया' जैसा लगता है। अर्थात यह कहावत कतई व्यवहारिक नहीं लगता। इसको बोलने वाले के मुँह से इसकी अवहेलना इतनी बार सुन चुका हूँ, अब तो लगता है किसी औसत से कम सुंदर दिखने वाले व्यक्ति ने इसे अपने बीच-बचाव में लिखा होगा। ताकि सार्वजनिक रुप से खुद को डिफेंड किया जा सके। एक तर्क यह भी आता है कि पहले नजर में लोगों के सही सीरत नजर नहीं आते इसीलिए वो सूरत पर विश्वास करने लगते हैं। खैर यह दुनिया 'जो दिखता है वही बिकता है' के भौतिकवादी नियम पर चलती है।
कुछ उच्च वर्ग के अमीर लोगों की एक शिकायत होती है। 'अरे! पैसा से क्या होता है। पैसे से खुशियाँ थोड़ी न मिलती है।' मुझे लगता है कि इस कहावत को कहने के लिए एक खास स्तर की अमीरयत चाहिए। यह मिडिल क्लास और इससे नीचे पर कभी लागू नहीं होता। बेशक पैसों से खुशियाँ नहीं मिलती है पर तकरीबन हर वो चीज मिलती है जिससे खुशियाँ मिलती है। और सबसे रोचक बात ये है कि आप पैसे के साथ दुखी रहना चाहेंगे न कि बिना पैसे के।
एक बहुचर्चित कोटेशन है कि, 'कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता।' बतौर छात्र इस कहावत के काॅन्सेप्ट को समझ ही रहे थे कि तभी पता लगा कि अगर पारंपरिक भारतीय समाज में इज्ज़त चाहिए तो काम का छोटा-बड़ा होना तो ठीक है पर काम का सरकारी होना बहुत जरूरी है। प्राइवेट नौकरी वाले को थोड़ी-थोड़ी इज्ज़त मिलने लगी है। वहीं स्ट्रार्टप्स करने वाले को आज भी हीन भावना से ही देखा जाता है। किसी के स्टार्टप के विचार पर ही असफलता के सैकड़ों दावें खींच दिए जाते हैं।
सरकारी महकमा भी इस कोटेशन बड़ा सुंदर इस्तेमाल करता है। जब कोई पढ़ा लिखा ग्रेजुएट नौकरी के अभाव में विरोध स्वरूप चाय-पकोड़े का ठेला लगाता है तभी राजनैतिक बयान आता है कि 'इसमें क्या बुराई है! चाय बेचना या पकौड़ा तलना छोटा काम बिल्कुल नहीं है।' हालांकि बात उनकी भी शत-प्रतिशत सही है। लेकिन चाय-पकौड़े बेचने के लिए बी. टेक या एमबीए जितने भारी-भरकम डिग्री की आवश्यकता थी नहीं वैसे। इसके लिए किसी अनुभवी चाय-पकौड़े वाले के पास से पखवाड़े भर के इंटर्नशिप से प्लेसमेंट या स्टार्टप हो जाना था।
भारतीय समाज में एक और कहावत बहुत मशहूर है वो है 'जोड़ियाँ ऊपर वाला बनाता है।' पर यह ऊपर वाले के नाम पर सारे लोभ-लालच को जायज़ ठहराने की बेजोड़ कोशिश होती है। धरती पर बैठकर जोड़ी बनाने वाले इतनी कड़ी रिसर्च करते हैं कि लगता है एक छोटा-मोटा डाक्टरेट की उपाधि इन्हें भी मिलनी ही चाहिए। इन धरती वालों ने अपने लालच और जातीय-गोत्रीय समीकरण बनाने हेतु, ऊपर वाले से उनके लिखे पर दसियों बार वाइटनर चलवाया है। अब तो ऊपर वाले ने भी अपने मुनिम को अपने कमीज के ऊपरी जेब में कलम के साथ व्हाइटनर रखने के आदेश दिए हैं। क्योंकि जिस रफ्तार से लिखा जाता है उससे तेज तो व्हाइटनर लगाकर सुधार करना पड़ता है।
ब्रिटिश फेबियन सोसायटी ब्रिटेन के प्रगतिशील चिंतकों, लेखकों, जनसेवियों, दार्शनिकों आदि का एक क्लब था। ये लोग खुद को समाजवादी कहते थे। इसमें इतिहासकार एच. जी. वेल्स, लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, एनी बेसेंट जैसे लोग थे। फेबियन लोगों में सबसे प्रखर वक्ता जार्ज बर्नार्ड शाॅ थे। वे लंबे-लंबे भाषण देते थे। उनकी अंग्रेजी बहुत कठिन और चमत्कारी होती थी।
ऐनी बेसेंट भी सक्रिय फेबियन थी। शाॅ के शाब्दिक मायाजाल से ऐनी बेसेंट आकर्षित होती गई। यह आकर्षण प्रेम के मंजिल पर पहुँचने लगा था। ऐनी तलाक देकर बर्नार्ड शाॅ से शादी करने को राजी हो गई थी। इस भोली और इमानदार स्त्री को पता नहीं था कि बर्नार्ड शाॅ का पूरा व्यक्तित्व ही शब्दों का मायाजाल था। चिन्तन, दर्शन, अटपटे विचार और विस्फोटक भाषा के इस देवता के मायाजाल में लोग उलझते थे।
ऐनी बेसेंट सक्रियता में विश्वास करती थी। वे साहित्यिक, दर्शन, इतिहास आदि में पंडिता थी। वे बहुत संवेदनशील थी। बर्नार्ड शाॅ ने जो शादी का इकरारनामा बनाया, उसमें स्त्री को कोई अधिकार नहीं था। वो एक गुलाम सरीखी थी। उनके लिए बर्नार्ड शाॅ ने पर्दा भी जरूरी रखा, जैसे वो कोई अरब दकियानूस हो। स्त्री के लिए कई बंधन थे। बर्नार्ड शाॅ स्त्री के अपने व्यक्तित्व को मानते ही नहीं थे। ऐनी ने जब ऐसा पढ़ा तो वह चकित रह गई। उन्हें आभास हुआ कि मानवाधिकार की कितने जोरदार शब्दों में वकालत करनेवाला ऐसा दकियानूस निकला। प्रगतिशील समाज में सबसे बढ़कर भाषण देने वाला ऐसा पुरातनपंथी निकला। हो सकता है कि बर्नार्ड शाॅ ने ऐसा मजाक में लिख दिया हो पर ऐनी बेसेंट को आघात लगा। उन्होंने पूछा- इन विश्वासों के आदमी से कैसे पटेगी?
(लेख का यह भाग हरिशंकर परसाई के 'आवारा भीड़ के खतरे' से उद्धृत है।)
अधिकतर सिद्धांतो, कहावतों, उद्धरणों इत्यादि का इस्तेमाल लेखक , कवि, शायरों जैसे साहित्यकार घराने के लोगों द्वारा पेश किया जाता है। फिर इन सिद्धांतों का आम जीवन में दंभ भर कर खुद को अलग और बुद्धिजीवी दिखाने के लिए किया जाता है। धीरे-धीरे यह अपनी जमीनी प्रासंगिकता खो देती है और किसी संस्थान के द्वारा पर सुविचार बनकर रह जाती है।
इसी क्रम में आम लोग साहित्यकारों को सचमुच वही सैद्धांतिक देवता/देवी होने की भूल कर बैठते हैं। उम्मीद करते हैं कि वह असल जिंदगी में भी इतना ही बेहतरीन इंसान होगा। पर सच्चाई इससे उलट है। अच्छा लिखना और अच्छा होना दोनों काफ़ी अलग-अलग बातें हैं।क्या लिखना है यह प्रायः मार्केट के डिमांड पर लिखी जाती है। ऐसा क्या लिखा जाए कि बहुतायत लोगों द्वारा यह पसंद किया जाए। उसके लेख, भाषण या कला को उसके व्यक्तित्व से जोड़ना काफ़ी बचकानी बात लगती है।
ऐसी बातें सिर्फ़ कहने में अच्छी लगती है। मेरे विचार में आप कितने परिपक्व हैं, यह इससे भी पता चलता है कि आप इन कहने वाली बातों को कितना बेहतर तरीके से परखते हैं।
यह लेख पूर्णतः व्यक्तिगत अनुभव पर लिखित है। सभी विचार भी पूर्णतः निजी हैं। शेष आपत्तियों का भी स्वागत है। 🙏
✍️ हर्षित (BHU)
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