10/16/22

काश (लघुकथा):-माधुरी भट्ट

  


   " काश! "

अर्पिता आज बहुत उदास है।दिल की बात किसी से कहने की सामर्थ्य नहीं जुटा पा रही है।मन ही मन सोच रही है..

कितना सुनाया था बातों ही बातों में आज से पाँच साल पहले अपनी पड़ोसी प्रेरणा को जब उसने कहा था.…"दीदी दोनों बेटों को विदेश भेजने की ज़िद क्यों कर रही हैं... भैया ठीक तो कह रहे हैं एक बेटा यहीं रहकर जॉब करे तो क्या बुराई है!" तब अर्पिता ने घुमाफिरा कर  कह ही दिया था, "दोनों बेटे बहुत होनहार हैं...जो बेवकूफ़ होंगे उनकी तो मजबूरी है.. यहीं रहकर गुज़ारा करना ही होगा ।"   और आज..पति की दोनों किडनियों के खराब होने और अंतिम अवस्था में पहुँचने की खबर पाने के बावज़ूद दोनों बेटों ने मज़बूरी ज़ाहिर कर,  कर्तव्य से मुख मोड़ लिया।

                  अंतिम घड़ी में आख़िर प्रेरणा का बेटा ही रात भर अस्पताल में अर्पिता आँटी के साथ रहा और आज अंतिम संस्कार भी ऐसे किया, मानो वह उन्हीं का बेटा हो।प्रेरणा के कंधे को आँसुओं की अविरल धार से भिगोती अर्पिता के मुँह से दबी आवाज़ में निकल पड़ा ...काश!

                            माधुरी भट्ट

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