श्रंगार गांव की गोरी का
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खुदा रब गाड की अद्भुत श्रिजन हो तुम
महकती चहकती खिली हुई नव उपवन हो तुम
अंग अंग में लचक है कच्ची हरी भरी डाली सा
मुस्कान मुखड़े पर उगते सुरज की लाली सा
सहज सरल इस जिवन की कंचन यौवन हो तुम
ख़ुदा रब गाड की अद्भुत श्रिजन हो तुम
महकती चहकती खिली हुई नव उपवन हो तुम
सखियों के संग जब बांचती चिठ्ठी साजन की
कान लगाए सुनती तितलियां कुंजन कानन की
प्रतीक्षा पिया की करती मीरा सा पावन मगन हो तुम
खुदा रब गाड की अद्भुत श्रिजन हो तुम
महकती चहकती खिली हुई नव उपवन हो तुम
हाथ में कंगन माथे पर बिंदी चोटी में शोभे गजरा
पांव महावर कमर पर बंद आंख में शोभे कजरा
बीना को लागे स्नेह नेह से भरी मधुबन हो तुम
खुदा रब गाड की अद्भुत श्रिजन हो तुम
महकती चहकती खिली हुई नव उपवन हो तुम
डा बीना सिंह "रागी "
स्वतंत्र लेखिका कवयत्री शायरा
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धन्यवाद
हरे कृष्ण प्रकाश ( युवा कवि)
(संस्थापक- साहित्य आजकल, साहित्य संसार)
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