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मुकतदी बनते हैं हालात ग़म इमामत करते हैं ,
हर रोज फरिश्ते टूटी झोपड़ी की जियारत करते हैं ।
पहन के कीमती लिवास कुछ लोग दिखाबत करते हैं,
जर्रे जर्रे में है खुदा तभी तो हम कहीं भी इबादत करते हैं ।
अमीरे शहर खुश हैं अब बादशाहत पे अपनी,
हमको नाज़ है घर में हमारे बच्चे शरारत करते हैं ।
जो बदल सकते नहीं हालात तो जुल्म करना छोड़ दो,
फिर ये न कहना इंकलाबी लोग बगावत करते हैं ।
तेरी मनमानी से गिरा सकते नहीं हम अपने हद को ,
पारखी लोग पारखी नजर कब कोयले की तिजारत करते हैं।
मुफलिसी में नहीं जलते कितने घरों के चूल्हे,
शाहरुख मेरी कौम में ऐसे लोग भी सदारत करते हैं।
शाहरुख मोईन
अररिया बिहार
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धन्यवाद
हरे कृष्ण प्रकाश ( युवा कवि)
(संस्थापक- साहित्य आजकल, साहित्य संसार)
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