शीर्षक :- मोहब्बत का परिंदा हुं ...
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शीर्षक :- मोहब्बत क्यू परिंदा हुं ...
मोहब्बत का उन्मुक्त परिंदा हुं,
मगर अक्सर तेरे जाल में फंसता हूं।
बच भी जाऊं अगर खुद के ख्यालात से ,
तो अक्सर तेरे ही ख्वाब में धंसता हूं ।
कभी अपने ही अनायास उलझन में ,
तो कभी तेरी जुल्फों में फंसता हूं।
माना ये इश्क तुमसे है मगर,
क्यूं अक्सर गैरों से उलझता हूं।
जलती है मोहब्बत की चिराग,
फिर न जाने मै क्यूं पिघलता हूं ।
है कैसी दिल्लगी इस यौवन की,
जिसे बयां करने से झिझकता हूं।
बना लूं एक आशियाना उम्र भर के लिए,
मगर हर रोज मिलकर तुमसे बिछड़ता हूं।
✍️ युवा रचनाकार - खिलेंद्र मिरे
मुंगेली छत्तीसगढ़
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धन्यवाद
हरे कृष्ण प्रकाश ( युवा कवि)
(संस्थापक- साहित्य आजकल, साहित्य संसार)
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