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4/23/23

उर्दू हो या हिंदी, हर महफिल और कवि सम्मेलनों की शान गजल !": सिद्धेश्वर

शिल्प की दृष्टि से बहर , क़ाफ़िया, रदीफ़ की सीमाओं में बंधी होती है ग़ज़ल :डॉ आरती कुमारी

  गज़ल में लघु और गुरु मात्राओं का अभ्यास नितांत आवश्यक !:  सुभाष पाठक जिया 

                                  पटना : 23/04/2023 ! गजल आज  उर्दू मुशायरा से निकलकर, हिंदी कवि सम्मेलनों में छा गई है, और हिंदी कवियों के लिए भी, काव्य की एक प्रमुख विधा बन गई है lऔर इस मायने से, गजल उर्दू हो या हिंदी, हर महफिल और कवि सम्मेलन की शान समझी जा रही है  l बल्कि बहुत सारे ऐसे समकालीन कवि हैं, जिन्होंने अपनी पहचान गजल के माध्यम से ही बनाई है  l बल्कि हिंदी के साथ साथ उर्दू में भी एक से बढ़कर एक  गजल कहा है उन्होंने  l और अब यह मानसिकता धीरे-धीरे बदलने लगी है कि गजल उर्दू घराने की पहचान है l गजल को हिंदी में प्रतिष्ठित करने वाले कवि दुष्यंत कुमार और फिर शेरजंग गर्ग, रामदरश मिश्र, कुंवर बेचैन, जैसे कवियों से लेकर आज कविता के मैदान में, सैकड़ों नए पुराने ऐसे कवि हैं, जिन्होंने सिर्फ और सिर्फ गजल के माध्यम से, अपनी अलग और स्पष्ट पहचान बना रखा है  l

         भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में, गूगल मीट के माध्यम से, फेसबुक के अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका के पेज पर, अवसर साहित्य पाठशाला के चौथा एपिसोड का संचालन करते हुए संयोजक सिद्धेश्वर ने उपरोक्त उद्गार व्यक्त किया l आज की गज़ल पाठशाला में कई गजलों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए, मुख्य अतिथि डॉo आरती कुमारी ने इसे युवाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय विधा बताया। उन्होंने उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि ग़ज़ल शिल्प की दृष्टि से बहर , क़ाफ़िया, रदीफ़ की सीमाओं में बंधी होती है। ग़ज़ल में मतला, हुस्ने मतला , अशआर, और मक़्ता महत्वपूर्ण अंग होते हैं। शुरू की पहली दो पंक्तियों (मिसरों) को मतला कहा जाता है जिसमें दोनों मिसरों में रदीफ़ का दोहराव होता है। ग़ज़ल के शेर में केवल सानी मिसरे में ही रदीफ़ आती है। बहुत सी ग़ज़लें बिना रदीफ़ की कही जाती है जिन्हें ग़ैर  मुरद्दफ़ ग़ज़लें कहते हैं। रदीफ़ के पहले क़ाफिया आता है जो हर शेर में बदलता है। ग़ज़ल का आख़िरी शेर जिसमें शायर अपने तख़ल्लुस का प्रयोग करता है मक़्ता कहलाता है। उन्होंने बताया कि संक्षिप्तता, गागर में सागर भरने की क्षमता , विचारों की सघनता और विषय वस्तु की स्वतंत्रता ही इसकी विशेषता है। ग़ज़ल उच्चारण यानि कहन पर आधारित होती है। कुछ शब्दों के उदाहरण के साथ उन्होंने मात्रा गणना कैसे की जाती है पर प्रकाश डाला। मध्य प्रदेश से जुड़े शायर सुभाष पाठक 'ज़िया' ने प्रचलित बहरों के उदाहरण के साथ कई शब्दों पर लघु और गुरु मात्राओं का अभ्यास करवाया। उन्होंने कुछ प्रचलित बहरें जो आज अत्यधिक इस्तेमाल की जा रही हैं ,को बताया। जैसे -बहरे हजज़ सालिम अरकान - मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन

वज़्न 1222 1222 1222 1222

उदाहरण - चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों/और इस तरह एक दो बहरों पर संक्षिप्त किंतु स्पष्ट रूप से बात किया।

            डॉo आरती से यह पूछने पर कि आप ग़ज़ल कैसे कहती हैं, उन्होंने बताया कि ग़ज़ल कहने के लिए अभ्यास सबसे ज़रूरी चीज़ है। हाँ, मगर शुरुआत करने के लिए संगीत काफ़ी हद तक सहायक हो सकता है क्योंकि ग़ज़ल की बहरें संगीतात्मक होती हैं। मगर सिर्फ़ गुनगुनाकर ही बहर की कसौटी पर ग़ज़ल को नहीं रखा जा सकता है। इसलिए ग़ज़ल कहने के लिए व्याकरण जानने और उसके अभ्यास की ज़रूरत होती है। तब मिसरे शेर या बहर में आने लगते हैं और फिर मात्रा गिनने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। अंत में उन्होंने अपनी ग़ज़ल "आप हमको गर मिले तो हर खुशी बढ़ जाएगी, आपके आने से थोड़ी ज़िंदगी बढ़ जाएगी" सुनाई lइनके अतिरिक्त पुष्प रंजन,गार्गी रॉय , राज प्रिया रानी , अपूर्व कुमार, ऋचा वर्मा, संतोष मालवीय, नमिता सिंह, कनाडा से मंजू गुप्ता, इंदू उपाध्याय आदि ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज की और चर्चा में भाग लिया!

[] प्रस्तुति : ऋचा वर्मा ( सचिव ) भारतीय युवा साहित्यकार परिषद, पटना! 

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हरे कृष्ण प्रकाश ( युवा कवि) 

(संस्थापक- साहित्य आजकल, साहित्य संसार)




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