'साहित्यिक सम्मान समारोह' साहित्यिक कम,सरकारी अधिक लगता है : सिद्धेश्वर
पटना : 07/08/2023 l साहित्यिक समारोह , गैर सरकारी हो या सरकारी, लेखकों पत्रकारों और श्रोताओं के बीच में ही सुशोभित होता है l सिर्फ पुरस्कार पाने वाले लेखकों, उनके परिवार के सदस्यों, विधायको, मंत्रियों के बीच गोपनीय रूप से बिल्कुल नहीं l आम लेखकों और श्रोताओं के अभाव में ऐसा 'साहित्यिक सम्मान समारोह' साहित्यिक कम, सरकारी अधिक लगता है l यह साहित्यकारों का सम्मान है या अपमान ? क्योंकि यहां पर बात साहित्यकारों के स्वाभिमान की है l
भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में फेसबुक के अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका के पेज पर कवि, कथाकार सिद्धेश्वर ने ऑनलाइन 'तेरे मेरे दिल की बात' एपिसोड ( 30 ) में उपरोक्त उद्गार व्यक्त किया l उनकी यह चर्चा साहित्यिक,सांस्कृतिक एवं सामाजिक संदर्भों से जुड़ी हुई होती है l एक घंटे के इस लाइव एपिसोड के भाग :30 में " साहित्यिक समारोह बन गया सरकारी समारोह " के संदर्भ में उन्होंने विस्तार से आगे कहा कि -
जो साहित्यकार अपने जीवन काल में आर्थिक अभाव के कारण एक पुस्तक भी प्रकाशित नहीं कर पाता , और कोई छोटा-मोटा सरकारी पुरस्कार भी उसे प्राप्त नहीं होता तो ऐसे में उसके मान -सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा कौन करेगा ? उसके सामने आर्थिक रुप से संपन्न साहित्यकारों को और कई बार सम्मानित हुए साहित्यकारों को अच्छे-अच्छे पुरस्कार और मान सम्मान सब कुछ मिल जाता है ! यह सब कुछ देख कर अधिकांश साहित्यकार की आत्मा को पीड़ा नहीं पहुंचती है क्या ? "
" हालांकि सच यह भी है कि जो सच्चा साहित्य साधक होता है , उसे पीड़ा पहुंचती भी है तो वह उसे भुला देता है l वह अपने साहित्य सृजन कर्म में लगातार जुटा रहता है, कलम का मजदूर बनकर, कलम का सिपाही बनकर l एक सच्चा मजदूर, फसल की चिंता में, अपना श्रम कभी कम नहीं करता, एक सच्चा सिपाही , अपने दुश्मनों को देखकर, कभी हार नहीं मानता, कभी पीछे नहीं हटता l यदि जीत और हार ही हमारी किस्मत है , तो कर्म हमारा धर्म है l और सच्चा साहित्यकार हो या सेवक, किसान हो या मजदूर, अपना धर्म, क्या कभी छोड़ सकता है ? "
सिद्धेश्वर के व्यक्त किए गए विचार पर ऋचा वर्मा ने कहा - " किसी ने कहा है साहित्य, रोटी कमाना तो नहीं पर रोटी खाना तो जरूर सिखाता है ।यह हमें जीने की तमीज सिखाता है। इस तरह साहित्यकारों का योगदान समाज के निर्माण में बहुत ही प्रमुख होता है। साहित्यकार जो अपना तन मन धन अर्पित कर सेवा में लगे रहते हैं उन्हें पुरस्कृत किया जाना हर साहित्य प्रेमी के लिए गौरव के क्षण होते हैं हर साहित्य प्रेमी उन क्षणों का साक्षी बनना चाहता है। अब अगर ऐसे साहित्य प्रेमी जो एक पत्रकार की भूमिका में साहित्य पुरस्कार वितरण पलों को अपने कैमरे में कैद कर और पुरस्कृत साहित्यकारों के विचार आम पाठकों तक लाना चाहते हैं अगर उन्हें सरकार द्वारा आयोजित समारोह में प्रवेश तक नहीं मिलता है तो फिर आम जनता उन पलों से परिचित कैसे हो पाएगी। इसलिए समाज में साहित्य प्रचार -प्रसार के लिए यह आवश्यक है साहित्य संबंधी किसी भी गतिविधि में आम लोगों की भी सहभागिता हो, जिससे लोग निकट साहित्य को देख सकें,सुन सकें और समझ सकें।
लखनऊ से विजया कुमार मौर्य ने कहा कि -"साहित्य को समृद्ध बनाने और संस्कृति को सुदृढ करने की दिशा में प्रत्येक जनपद जिला भाषा अधिकारी की महत्व भूमिका रहती है।
दूसरी ओर कुछ सरकारी आयोजनों के प्रबन्धन को ठेकेदारी अथवा आउटसोर्स पद्धति पर भी देने का प्रयास होने लगा है। ऐसी परम्परा को साहित्यकारों के हित में स्वस्थ परंपरा नहीं माना जा सकता।
कई जिलों में मासिक अथवा द्विमासिक गोष्ठियाँ भी होती हैं इसी प्रकार प्रदेश के अन्य जिलों की साहित्यिक गतिविधियां भी कवियों-लेखकों की प्रेरणा एवं प्रस्तुति का माध्यम समय-समय पर बनता रहता है।
ऐसे में साहित्यकारों के अलग अलग मत हैं। "
रमेश चंद्र मस्ताना कहते हैं कि वर्ष 2019 के साहित्यिक परिदृश्य पर यदि विहंगम दृष्टिपात किया जाय तो कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां भी सामने आयी हैं।
🔷 इंदु उपाध्याय ने कहा कि -मेरे विचार से साहित्य हमारा भाव है जो समाज का आईना है। जो समाज की कुरीतियों से रूबरू कराता है ।जिससे उसको दूर करने में सहायता मिलती है। यह एक ऐसा एहसास है जो लहू से सींचा जाता है और तब पन्नों पर उतरता है। एक तरह से हमारे जिगर का टुकड़ा है, हमारी संतान की तरह है। इसे राजनीति से दूर ही रखना चाहिए वरना इसकी छवि धूमिल हो सकती है ।साहित्य और राजनीति का कोई मिल नहीं ।जिसे साहित्य से कोई मतलब नहीं उसे, उसके साथ मंच साझा करना मुझे समझ नहीं आ रहा है । मुझे तो सही नहीं लग रहा है। साहित्य प्रेमियों के लिए साहित्य उनका जीवन है ।साहित्य को जीवंत रखने के लिए उसे राजनीति से दूर रखना होगा, इसके लिए स्वतंत्र मंच चाहिए जहां वह अपने विचारों की अभिव्यक्ति खुलकर कर सके और साहित्य को पोषित कर सके जिसे साहित्य का विस्तार हो। "
इनके अतिरिक्त रजनी श्रीवास्तव अंतरा ",विजय कुमारी मौर्य, एकलव्य केसरी, अपूर्व कुमार ,सुधा पांडे, ,राजेंद्र राज,सपना चंद्रा, संतोष मालवीय, प्रियंका श्रीवास्तव शुभ्र,चैतन्य किरण, शैलेंद्र सिंह, संतोष मालवीय,सुनील कुमार उपाध्याय,नीलम श्रीवास्तव आदि विचारकों ने भी अपने विचार रखे l
♦️🔷 प्रस्तुति : ऋचा वर्मा (सचिव)/ सिद्धेश्वर ( अध्यक्ष ) भारतीय युवा साहित्यकार परिषद
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धन्यवाद
हरे कृष्ण प्रकाश ( युवा कवि)
(संस्थापक- साहित्य आजकल, साहित्य संसार)
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