ओस की बूंदे
नभ ने किया मिलाप शीत से,
उत्सृजित हुआ ओस बिन्दू जो,
उपवन वाग सब कृतार्थ हुए,
पाकर मोती मेह विन्दु के ।
पलको मे पहन कर धूप का चश्मा,
दिखा रहा नभ अपना करिश्मा,
धुऑ धुऑ सी होकर धरती,
सुलगा रही हैं अलाव की बत्ती ।
पकवान बना रही है निशदिन,
लेकर हरितिमा की रंगो से
अपनी धरती प्यारी धरती ।
वर्फ की दोशाला ओढ़े
पेड़ हर ओर है खड़े,
कर रहे हैं प्रतीक्षा भानु का
आए वह तो दोशाला खोले।
डाल पे सहमी चिड़ियॉ बैठी,
देख रही है कोई सपना,
हो आलोकित जग तो जाऊँ
बनाऊँ अपना एक आशियाना ।
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चलता समय अपनी गति से,
पर लगता है सबको जैसे,
चलता है वह धीरे धीरे,
जैसे हवाई जहाज मे बैठे,
राही जाए निज मंजिल तीरे ।
पहला प्रहर शीत का बीता,
आया आलोक ले राग पुनिता,
पुनःवैसा ही चलने लगा क्रम,
जैसे चलता रहता हरदम ।
✍️ रत्ना बापुली लखनऊ
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(पूर्णियां, बिहार)