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6/29/20

क्या सच में मैं आज की नारी हूँ? By:- निर्मला

Sahitya Aajkal:- हरे कृष्ण प्रकाश (युवा कवि)
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शीर्षक:- क्या सच में मैं आज की नारी हूँ? 

हाँ , मैं आज की नारी हूं। घर, आफिस, समाज हर जगह तो मैं स्वतंत्र हूं। पुरुष के समान मुझे सभी हक मिले हैं। हर क्षेत्र में मैं सेवा निभा रही हूं, समाज में मुझे बहुत सम्मान मिल रहा है। कहते हैं आज की औरत चार दीवारी में बन्द नहीं है, वो खुले आसमान में खुल कर सांस ले सकती है, वो भी मर्दों की तरह दिन-रात कहीं भी आ जा सकती है। वह पूरी तरह स्वतंत्र है.... क्या सच में मैं स्वतंत्र हूं? घर में मुझे बराबर के हक मिले हैं?
                अगर पति ऑफिस जाते हैं तो मैं भी ऑफिस जाती हूं लेकिन मैं सुबह घर का सारा काम घर की सफाई, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, सभी के टिफन तैयार करना, खुद ऑफिस के लिए तैयार होना, सब के लिए खाना बनाना, लेकिन खुद के पास खाना खाने का भी समय नहीं, क्योंकि मैं एक औरत हूं और ये सारे फ़र्ज़ मेरे हिस्से आते हैं।
         
              नतमस्तक हूं उन पुरषों के आगे जो नहीं सोचते कि क्या कहेंगे लोग? जो अपनी पत्नी का साथ देते हैं और अपनी पत्नी को प्यार, सम्मान और खुशियां देते हैं और कुछ पति तो भूल जाते हैं कि औरत भी इंसान है, उसे भी आराम चाहिए, उसे भी प्यार कि जरूरत है। वो अपना घर - परिवार छोड़ कर आई है, आपके पास फिर क्यों उसे बार-बार अहसास दिलाया जाता है कि वो इस घर में बेगानी है। घर के बाद शुरू होती है अगली परीक्षा। एकबार फिर चल पड़ती हूं मैं अपनी ड्यूटी के लिए, कभी जरा सी लेट हो जाऊं, बस छूट जाए तो डरती हूं कहीं चेकिंग ना हो जाए और फिर ऑफिस फोन करती हूं।
           रास्ते में लोगों की अच्छी-बुरी नजरों को बर्दाश्त करती हूं। इसके बाद फिर पहुंच जाती हूं,मैं अपने कार्यस्थल पर। हाँ, वहाँ पुरषों के समान मैं अपनी ड्यूटी निभाती हूं। कभी-कभी ऑफिस के काम से बाहर जाना पड़े तो मेरे सहकर्मी पुरुष कहते हैं, आप जाइए मैडम आप भी तो हमारे जितनी तनख्वाह लेती हैं।
       
चल पड़ती हूं मैं फिर अनजानी राहों पर कभी-कभी कुछ गुंडों द्वारा छीना-झपटी कर मेरा पर्स या फिर चेन छीनी जाती है। चाहती हूँ मैं विरोध करना जानती हूं लेकिन अपनी आबरू बचाने के लिए भाग निकलती हूं वहां से। घर वालों को पता चलता है तो हमदर्दी कम और बातें ज्यादा सुननी पड़ती हैं। कहते हैं- तुम क्यों नहीं कहती की बाहर के कामों के लिए पुरषों को भेजो... कुछ नहीं बोल पाती मैं उनके आगे। ऑफिस से घर लौटती हूं, पर्स रखते ही शुरू हो जाती हूं, कभी कपड़े धो लूं , कभी बच्चों के स्कूल का काम, कभी सब्जी... बस इन्हीं सब में कब रात हो जाती पता ही नहीं चलता।
        कभी - कभी सोचती हूं क्यों पतिदेव कुछ  सहायता नहीं करते, फिर याद आती है कि इन कामों से तो उनकी शान कम हो जाएगी और फिर ऐसे काम करके वो जोरू के गुलाम नहीं कहलाएंगे? वैसे भी मैं आज की नारी हूं मैं तो दिन-रात मशीन की तरह चल सकती हूं। चलो घर में शोषण हुआ तो क्या है। मैं तो आज की नारी हूं, पहले रखा जाता था मुझे पर्दे में आज तो खुलेआम निर्वस्त्र किया जाता है। कई बार सोचती हूं, क्यों नहीं बोलती ये लड़कियां? क्यों चुप रह जाती हैं ?..... डरती हैं वो कि एक बार नहीं बार बार बलात्कार होगा कचहरी में, जब ऐसे सवाल पूछे जाएंगे कि औरत बेजुबान हो जाएगी और अगर हिम्मत करके उन दरिंदो को सजा दिलाना भी चाहूं तो सालों लग जाते हैं मुझे इंसाफ मिलते-मिलते। तब तक तो औरत की आत्मा भी मर चुकी होती है। मैं मानती हूं कि औरत के हालात बदले हैं, पूरा मान-सम्मान मिल रहा है उसे लेकिन एक औरत के अलावा ये कोई नहीं जानता कि औरत आज भी वो सब कुछ सह रही है जो आज से सदियों पहले सह रही थी। आज भी औरत के साथ घर में हिंसा होती है। उसके अरमानों को कुचला जाता है। आज भी औरत का शोषण होता है शायद भगवान ने औरत को इसीलिए इतना सहनशील बनाया है कि इतना कुछ होने के बाद भी हर रिश्ता बखूबी निभा रही है।भगवान औरत को इतना शक्तिशाली बनाए रखे कि हँस कर वो अपना हर ग़म भुलाती रहे।।
                                       ✍️  निर्मला,
                                    होशियारपुर (पंजाब)
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         हरे कृष्ण प्रकाश 
         पूर्णियाँ, बिहार
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