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5/1/22

श्रम ही पूजा:- डॉ. किशोर कुमार यादव

 


श्रम ही पूजा

श्रम प्रार्थना , श्रम ही पूजा ,

 श्रम    है    स्वप्न    विचार। 

श्रम ही जीवन , श्रम कर्म है ,

श्रम      सभ्यता     आधार। 


संघर्षशील मनुज ने गढ़ दी ,

पाषाणों    में    नव   प्राण। 

अपने हाथों से गढ़ा अनेक ,

सभ्यता      का     निर्माण। 


जिन हाथों से नित करता ,

प्रकृति का अनुपम श्रृंगार। 

मेरे  श्रम  से  टिकी  हुई है ,

संस्कृति  का  सब आकार। 


जिन हाथों ने गढ़ी सभ्यता ,

उन  हाथों  को  काट दिया। 

कैसे सृजन अब होगा बोलो ,

स्वाभिमान  को  बांट  दिया। 


 मिला न अधिकार आजतक ,

नहीं    स्वप्न   साकार   किया। 

रुप  सजाने  वाले  हाथों  को ,

तुमने    ही    बेकार    किया। 


मना    रहे    मजदूर    दिवस ,

मेरी      ही      मजबूरी     में। 

नारे  गढ़े  ,  हाथ  तो   गढ़ता ,

मेरी      ही      मजदूरी      में। 


स्वप्न  भरे  मेरे  आंखों  में मेरे ,

उन  आंखों  को  छीन  लिया। 

तुम विस्मित , जग अचरज में ,

मुझे   अधमरा   छोड़   दिया। 


कैसे    सपन    सजा    लोगे ,

मेरे   बिन   सब    सूना    है। 

दीन   बना  ,  मन   रोता  है ,

रोता   हृदय   का   कोना  है। 


जगती  बनी  जीवंत  आज ,

जिसके   श्रम  -  सीकर  से। 

जिससे प्राणवंत जड़-चेतन ,

धोया  न  कभी गंगाजल से। 


छू दिया जिस माटी की मूरत ,

बना     वह     पूजनीय     है। 

वह  अस्पृस्य  बना  जगत में ,

जिसकी  कृति  अतुलनीय  है। 


जिसके नींव पर टिकी सभ्यता-

संस्कृति      का      तन      है। 

वही उपेक्षित बना आजतक ,

उसका  तन- मन - जीवन   है। 


कैसे  हो  कल्याण  सृष्टि  का ,

नव     विहान     तो     होगा। 

सृजन   के  गायन  का  कोई ,

नव     विधान     तो     होगा। 


कर्मशील बिन मानव के कैसे ,

नव  जीवन  के  अंकुर फूटेंगे। 

धरा  की  कोख  न बने बंजर ,

शुभ     संदेश     ही    गूंजेंगे। 


       डॉ. किशोर कुमार यादव

              पूर्णिया  ,  बिहार।

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