खलासी :- अंशु अजय चरैया। Sahitya Aajkal
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शीर्षक:- खलासी :- अंशु अजय चरैया
कभी खाकर तो कभी पेट को रखता बासी हूँ
थक कर लटक कर लेता में उबासी हूँ,
मैं कोई और नहीं मैं मात्र खलासी हूँ!
मैं भी किसी गाँव मोहल्ले तो,
किसी गाँव का वासी हूँ!
मैं मात्र बस के साथ रहता वो पात्र,
जिसे लोग केहते खलासी हो
मात्र खलासी हो।
हाँ बस और बेबस खलासी हूँ
मैं भी कहीं का निवासी हूँ
मात्र खलासी हूँ।
तुम भूल जाते हो चौक चौराहे
मोड़ मुझे पेहचानते हैं, वो मुझे जानते हैं
ऐ रिक्सा, ऐ ठेला, ऐ टेम्पु
जरा दाएं जरा बांए जरा आगे जरा पीछे
तुम पढे लिखे हो!
हम भी कुछ न कुछ जुमले
जैसे मानसी खगड़िया दालकोला आ काशी
हम भी कुछ जानते हैं
कुछ लोग तो इसी बहाने मुझे जानते हैं
कुछ पेहचानते हैं कुछ मानते हैं ।
सो गया कोई तो उठाकर जगाकर
आ गया चौक तुम्हारा,
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यह न जाने कितनों को तुम बताए हो
घर से मंजिल मंजिल से घर
न जाने कितनों को पहुचाए हो
कभी तो शरीर जो माना गया लाश वो भी घर
घर से मुक्तिधाम तक पहुचाए हो
सवाल है आखिर आपस में
क्यू एक दुसरे से लड़ जाते हो
बेटी केहती पापा शाम को पीकर क्यू आते हो
खुद के घर में शराब से आग क्यू लगाते हो
आखिर पौआ पचय को क्यू आग लगाते हो
अरे तुम तो कई भूले यात्री को जगाकर
घर से मंजिल मंजिल से घर तक पहचाते हो
बस और बस बेटी केहती माँ से
माँ तुम क्यू नहीं पापा को समझाती हो
क्यू नहीं समझाती हो ।
✍️अंशु अजय चरैया
पूर्णियाँ, बिहार
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