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10/14/21

प्रवासी जीवन:- सुनील सागर




 प्रवासी जीवन:- सुनील सागर 

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बिता बचपन जवानी आई 

ढेरों जिम्मेदारियां साथ लाई ।

देश छोड़ परदेश को जाना पड़ा 

बन नोकर नोकरी करना पड़ा ।

लगे करने दिन - रात कमाई  

पर घर की याद न बिसराई ।

जब - जब घर - आँगन याद आता 

सच परदेश तनिक भी न भाता ।

प्याज काटने के बहाने

अपने आँसू छिपा लेता हूँ ।

जली रोटी कहकर भी 

भूख मिटा लेता हूँ ।

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अपनों को जब भी याद करता 

आँखों को अपने दूसरों से छिपाया करता ।

घर अपना जाने के लिये भी 

दूसरों से पूछना पड़ता हैं ,

परिवार से दूर होकर रहना 

सच में बहुत खलता हैं ।

घर- परिवार, आस - पड़ोस 

सब गौर से देखते हैं ।

कब आये , जाना कब हैं 

यही पूछते हैं ।

घर की सीढ़ियों पर कदम

लड़खड़ा जाता हैं ।

मेहमान हो गया हूँ अपने ही घर का 

ये ऐहसास दिला जाता हैं ।

पत्नी कहा करती हैं 

आपका आना सपना जैसा लगता हैं ।

नींद खुलती हैं तो जाने को 

आपका सामान तैयार दिखता हैं ।

छुपाकर दर्द मुस्कान के पीछे

घर से विदा लेता हूँ ।

रख सकू खुश सबको 

इसलिए ऐसा करता हूँ ।

करती शिकायत मुझसे मुसल्सल 

चले जाते हो यूँ तुम छोड़ कर मुझे

क्या तुम्हें याद मेरी नहीं आती

मुस्कुरा कर कहता मैं , अरे पगली

तेरी यादों का हो तो संबल हैं 

कट रहा जिससे मेरा प्रवासी जीवन हैं ।

✍️ सुनील सागर 

जमुई बिहार

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