भाषा की प्रकृति क्या है ? इसकी विवेचना करें--
प्रशन:- भाषा की प्रकृति क्या है ? इसकी विवेचना करें-
उत्तर:- भाषा की प्रकृति को समझने से पूर्व हम पहले भाषा की परिभाषा को देखेंगे तब हमें भाषा की प्रकृति समझने में आसानी होगी।
हम सभी जो बोलकर या अन्य किसी भी माध्यम से अपनी बातों को दूसरों तक पहुंचाते हैं । वहीं माध्यम भाषा कहलाती है। भाषा ही वह माध्यम है, जो हमारे हृदय के बातों, विचारों को सबों के सामने व्यक्त करता है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भाषा जीवन जीने की एक शैली है। जिससे हम सभी अपना जीवन बेहतर ढंग से अपने समाज में जीते हैं । अपने मन के भावों को व्यक्त करते हैं वही भाषा की परिभाषा है। भाषा मानव स्वभाव की तरह ही कई प्रकृति को धारण करती है उसकी भी अपनी स्वभाव है।।
भाषा की यही स्वभाव ही प्रकृति है जो भौगोलिक परिवेश, जीवन पद्धति साथ ही साथ ऐतिहासिक घटनाक्रम सामाजिक सांस्कृतिक और समाज में होने वाले बदलावों या विज्ञान के क्षेत्र में हुए विकासों के अनुसार ही भाषा बनती या उस में परिवर्तित होती है।
भाषा की प्रकृति निम्न है :------
1:- भाषा सुरंग के भावों की एक सांकेतिक साधन है :--
हर व्यक्ति के मन में कई बातें उत्पन्न होती है। उस मन की बातों को या विचारों को जिस रूप में सबों के सामने अभिव्यक्त करते हैं । वह भाषा है अर्थात भाषा स्वयं के भावों की एक सांकेतिक साधन है।
2:- भाषा अर्जित संपत्ति है:-
हम जिस परिवार में रहते हैं या जिस समाज में रहते हैं वही की बातों को जब देखते हैं तो उन्हीं तथ्यों को आत्मसात करते हैं और उसे ही बोलते हैं। इसका अर्थ यह होता है कि भाषा को हम खुद की ही उत्पन्न करते हैं। परिवेश के अनुरूप अपने भावों को व्यक्त करते हैं ।
जैसे - हम कह सकते हैं कि जब कोई बालक विदेश में रहता है तो वह वहां की भाषा को बोलता है । इसका मुख्य कारण यही है कि भाषा सिंह का अर्जित संपत्ति होती है।
3:- सामाजिकता की आवश्यकता:-
बालक छोटा हो या बड़ा हो सभी को भाषा सीखने के लिए समाज की अत्यधिक आवश्यकता होती है। इसका अर्थ यह है कि जब हम किसी भाषा को सीखते हैं तो हम सिर्फ उसके मूल्य तथ्यों या विधियों को सीखते हैं परंतु हमारी भाषा का संपूर्ण विकास तभी होती है। जब हम समाज में अपनी बातों का आदान प्रदान करते हैं, अर्थात वार्तालाप ही भाषा को सशक्त बनाती है। इसलिए सामाजिकता की आवश्यकता होती है। कहते हैं - समाज के बिना भाषा का उत्थान संभव ही नहीं इसलिए भाषा के विकास का केंद्र ही समाज है।
4:- परिवर्तन शीलता का होना:-
व्यक्ति कभी-कभी स्थान परिवर्तन करता है तो उनके भाषा का भी परिवर्तन साफ दिखता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जब व्यक्ति किसी भी कारण से अपना स्थान अर्थात अपने समाज को छोड़कर दूसरे जगह जाता है तो उनकी भाषा भी परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन हो जाती है। इसलिए भाषा परिवर्तन शीलता को धारण करती है।
5:- भाषा का गतिशील होना:-
विश्व बहुत बड़ी है। इसमें भाषा का कोई अंत नहीं है । इसका सदा विकास होती रहती है। इसलिए भाषा गतिशील है साथ ही यह बहुत ही हुई निर्मल धारा के समान होती है । जिसका कभी अंत नहीं और किनारा नहीं । इसलिए भाषा को हम सब गतिशील मानते हैं। इसका तात्पर्य यह है की भाषा गतिशील होती है।
6:- सरलता से कठिन की ओर:-
जब बालक छोटा होता है तो वह सरल सरल शब्दों को ही सीखता है और फिर अपनी परिवारों में अपने समाजों में बोलता है या कहे तो वह अपने परिवार में उस भाषा का प्रयोग करता है। इसके पश्चात वह कठिन कठिन शब्दों को आत्मसात करता है साथ ही कठिन शब्दों को अपने भाषा में प्रयोग करता है इसका अर्थ यह हुआ कि भाषा सरलता से कठिन की ओर ले जाती है और कठिन को भी आसान बना देती है।
इसप्रकार हम ऊपर के तमाम बिंदुओं के आधार पर कह सकते हैं कि भाषा की अनेक प्रकृति होती है जिसका हमारे जीवन में काफी योगदान है।
धन्यवाद।