शीर्षक– जिन्दगी
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जिन्दगी कट रही है
टुकड़ों में बंट रही है
देखता हूं रोज उसको
दर दर भटक रही है।।
रिश्तों में अब रस नहीं
किसी में अब तरस नहीं
सोचता हूं रोज क्यों,
इतना बदल रही है।।
नफरत भरा है सीना
मुश्किल अब है जीना
बोलने में भी क्यों,
आग उगल रही है।।
लाओ आनंद और खुशियां
न नम हों कोई अंखियां
मानवता सबको,
बुला रही है।।
जिन्दगी यही बता रही है।
सबको यही सिखा रही है।
महेन्द्र "अटकलपच्चू" ललितपुर (उ. प्र.)
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धन्यवाद
हरे कृष्ण प्रकाश ( युवा कवि)
(संस्थापक- साहित्य आजकल, साहित्य संसार)