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7/21/22

जीने के लिए ( कविता) -रशीद ग़ौरी


 कविता - जीने के लिए -

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पसीने सी 

बदबूदार चिपचिपी ईर्ष्या 

साफ बदन पर 

चिपक गई है 

और उग आई है 

सौहार्द की छाती पर 

नफरत की स्याह खरपतवारें।   

 छा गए हैं 

दिन के अंधेरे 

गूंगी संवेदनाओं के 

सन्नाटे हुए मुखर

दिलों के भीतरी 

कोनों में। 

स्वार्थ की कट्टर दीमक 

जो खा रही है 

मानवीय संबंधों की जड़ों को।   

भीतर ही भीतर 

जुदा हुई तन से 

संवेदन शिराएं चुपचाप।       

   बेजुबान दीवारों से टकराकर  

 बुझ गई मोतियाबिंद दृष्टि 

आजीवन कारावास सी 

सिमट गई है अनाथ सृष्टि 

क्या फर्क पड़ता है अब 

व्यर्थ है सब 

पर फिर भी बची है 

जीवन की एक ऊष्मा 

काफी है 

जीने के लिए।

           

- रशीद ग़ौरी

  सोजत सिटी( राजस्थान)


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