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शीर्षक:- बूँद - प्रो वत्सला
बारिश की बूँदें हूँ
जाकर कहाँ गिरूँगी
नहीं पता है मेरे अस्तित्व का
जाकर गिरूँगी किसी तनुधारी पर,
या किसी विवेकहीन जीव पर,
या किसी खेत -खलिहान में ,
या किसी नदी-नाले में,
या किसी झील- झरने में,
या किसी कूप और तालाब में,
या किसी महानद या सरोवर में,
या किसी महल -अटारी पर,
या किसी पर्वत और चट्टान पर,
जहाँ गिरूँगी मिट्टी में मिल जाऊँगी
नहीं पता मेरे अस्तित्व का
कभी जन मानस करते हैं
मेरी कामना
कभी करते हैं बन्द होने
की प्रार्थना
हूँ प्रकृति पर निर्भर
नहीं पता मेरे अस्तित्व का।
कभी पहुँचाती हूँ लाभ
कभी दिखलाती विनाश लीला
नहीं पता मेंरे अस्तित्व का।
कभी गिर पड़ी सीपी के भीतर
मोती बन जाती हूँ
हर बूँद का भाग्य ऐसा
कहाँ होता है।
सुयोग दुर्योग से संघर्ष करते
कभी मोती बनने का
अवसर मिलता।
नहीं पता मेंरे अस्तित्व का।
✍️ प्रो वत्सला,
वाराणसी
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धन्यवाद
हरे कृष्ण प्रकाश ( युवा कवि)
(संस्थापक- साहित्य आजकल, साहित्य संसार)