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3/27/22

सच में ये किसान है न:- शेख रहमत अली "बस्तवी"

 शीर्षक- किसान

रचना प्रकार- कविता

सुबह निकलता कन्धे हल रखकर

दो बैलों की जोड़ी लेकर

चलता है वह मचल-मचल कर

देखो कितना बलवान है न

दिल का सच्चा नेक इंसान है न

सच में ये किसान है न


बंजर भूमि उपजाऊ बनाये

मिट्टी में हर रोज़ नहाये

खून पसीना ख़ूब बहाये

जैसे खेत खलिहान है न

यही तो भारत की शान है न

सच में ये किसान है न


आलस तनिक न तन के अंदर

भय न कभी भी मन के अंदर

कोई विपदा ग़र आ जाये

फ़िर भी चेहरे पर मुस्कान है न

बुद्धी, विवेक,और ज्ञान है न

सच में ये किसान है न


फ़टे कपड़ों में लिपटा रहता

यही देश की अर्थव्यवस्ता

धरती का सीना चीर के ये

पैदा करता गेहूँ-धान है न

हर भारतीय की जान है न

सच में ये किसान है न


सारा जहाँ इसकी मेहनत से खाता

यही हम सभी का है अन्नदाता

खेत, फसल, पशु से है नाता

पर फ़िर भी ये ग़ुमनाम है न

"रहमत" कितना महान है न

सच में ये किसान है न


©मौलिक स्वरचित

~शेख रहमत अली "बस्तवी"

बस्ती उ, प्र, (भारत)

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