सिद्धेश्वर की डायरी - कथा दशक का लोकार्पण समारोह और आप!💠🌀❤
डायरीनामा ♦️ " कथा दशक " का लोकार्पण समारोह और आप 🌀 सिद्धेश्वर
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♦️ हम हृदय से उन सभी मित्रों भाइयों,बहनों, साहित्य प्रेमियों के प्रति समवेत रूप से आभार प्रकट करते हैं,, जिन्होंने मेरे द्वारा संपादित कथा संकलन 🌀 कथा दशक 🌀 के लोकार्पण समारोह में शामिल होकर अपने स्नेह और आत्मीयता का परिचय दिया 🌀 साथ ही साथ उनके प्रति भी हार्दिक आभार प्रकट करना चाहूंगा, जिन्होंने इस समारोह में आकर कथा दशक की प्रतियां खरीद कर अमूल्य सहयोग दिया है और हमें औऱ आगे इस तरह का बेहतर प्रयास करने की शक्ति प्रदान की है, हमारे इस छोटे से आमंत्रण को स्वीकार कर, हमें अपना ऋणी बना लिया है l🔷♦️ उनके प्रति भी आभार प्रकट करना चाहूंगा, जो चाह कर भी अपनी खास मजबूरी वश अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा सके लेकिन उन्होंने हमें व्हाट्सएप के माध्यम से शुभकामना प्रेषित कर, अपनी सहृदयता का परिचय दिया है l
एक दूसरे के प्रति सहयोग भावना ही, साहित्य के क्षेत्र में हमें और बेहतर करने की प्रेरणा देती है l साहित्य का विकास इसी सृजनात्मक पहल का परिणाम है l वरना सम्मान पत्र देकर और शाल ओढ़ाकर, साहित्य के विकास की सिर्फ खानापूर्ति करने वालों की कमी नहीं है l ताज्जुब है कि इस अभियान में सिर्फ राजनीति के खिलाड़ी ही नहीं, बल्कि साहित्य के खिलाड़ी भी हैं l पुरस्कार सम्मान आदि का कोई मापदंड ही नहीं रहा l रेवड़ी की तरह बाटे जा रहे पुरस्कार सम्मान के प्रति हमारा मोह बढ़ता जा रहा है,l आज के इस माहौल में अगर प्रेमचंद निराला जैसे साहित्यकार होते तो पता नहीं वे किस मनः स्थिति में होते l
हमारे साहित्य जगत में ढेर सारे युवा साहित्यकार ऐसे हैं, जो एक मुस्त पैसा खर्च कर अपनी पुस्तक प्रकाशक से प्रकाशित करवाने में असमर्थ है l सम्मान पत्र और शील्ड बांट कर हजारों रुपए बर्बाद करने वाली संस्थाएं, इन युवा प्रतिभाओं के लिए किसी साझा संकलन में उनकी रचनाओं को प्रकाशित कर, उन्हें इस प्रकार का सम्मान दे पाती तब शायद सही मायने में साहित्य का संवर्धन होता और युवा प्रतिभाएं आगे बढ़ने में अभिरुचि दिखलाती ,साहित्य की श्री वृद्धि होती l और आपसी आर्थिक सहयोग के आधार पर पुस्तक प्रकाशित करना उनकी मजबूरी नहीं होती l l अफसोस की बात है कि कुछ लोग इस क्षेत्र में है भी, तो वे लेखकों से इस मजबूरी का फायदा उठा कर, इतनी अधिक रकम जुटाने के प्रयास में रहते हैं, पुस्तक प्रकाशित होने के बाद आधी राशि उनके जेब में पहुंच जाए l कई प्रकाशक भी इस क्षेत्र में इसी उद्देश्य से जुट गए हैं l 25000 खर्च होगा तो आपसे मांगेंगे 40000 l उसकी बिक्री की बात तो दूर,, पुस्तकालय की शोभा बढ़ाने में भी रूचि नहीं दिखलाएंगे l
और इस क्षेत्र में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो खुद श्रेष्ठ रचनाओं का सृजन नहीं करते, लेकिन संपादक बनने के मोह में, अधकचरी रचनाओं को बटोर कर, पुस्तक प्रकाशित कर, लेखकों को झूठा दिवा स्वप्न दिखलाने का प्रयास करते हैं l इससे ना तो साहित्य का हित होता है ना साहित्यकारों का l
इतने सारे विचार मुझे कल पुस्तक के लोकार्पण के पश्चात सृजित हुए, ज़ब जयंत जी ने माना कि व्यावसायिक प्रकाशकों के शोषण से बचने के लिए, और झूठे मान सम्मान के मोह से लेखकों को बचाने के लिए लिए,, लेखकों के सहकारी आधार पर,अपनी श्रेष्ठ रचनाओं का साझा संकलन सतत प्रकाशित होना चाहिए l
और यह सच भी है कि इस तरह की योजनाएं ऐसे रचनाकारों को बनाना चाहिए जिन्हें साहित्य की अच्छी समझ हो औऱ एक दूसरे की पुस्तक को खरीद का पढ़ने की आदत भी डालनी चाहिए, क्योंकि ऐसी पुस्तके कम कीमत की होती है औऱ प्रकाशको को फायदा देने के बजाए लेखकों औऱ आम लोगों को फायदा पहुंचाती है l ऐसी पुस्तकें सिर्फ अलमारियों की शोभा नहीं बनती, बल्कि कई रचनाकारों के बीच साझा रूप से बाँटी औऱ पढ़ी जाती है l घर-घर तक पहुंचती है l युवा लेखकों को सृजन के लिए उत्साहित करती है l जैसा कि हमने अपने संपादन में प्रकाशित साझा कथा संकलन "कथा दशक" के संपादन में किया औऱ लेखकों में ही शामिल विजयानन्द विजय और जयंत जैसे हिंदी के जानकार विद्वानों के सामने उन सभी कहानियों को रखा, जो हमें प्रकाशित करनी थी और जिस में आवश्यक संशोधन करना था l क्योंकि जरूरी नहीं कि प्रत्येक लेखक शुद्ध ही लिखें l लेकिन जब पुस्तक प्रकाशित होती है, तब शुद्ध तो होना ही चाहिए l तभी पुस्तक की प्रमाणिकता भी है और महत्व भी l मुझे प्रसन्नता है कि मुझे इन लोगों का हमेशा सहयोग प्राप्त होता रहा है l और शायद इसलिए मैं बेहतर पुस्तक सामने ला पाता हूं l लब्ध प्रतिष्ठित कथाकार भगवती प्रसाद द्विवेदी जी ने जब इस संकलन की अधिकांश कहानियों के प्रति संतोष प्रकट किया, तब मुझे लगा कि हमारे संपादक टीम का मेहनत सफल हुआ l
यदि आप लोगों का इसी प्रकार से सहयोग हमें मिलता रहा, तो मेरी कोशिश होगी कि प्रत्येक साल में साहित्य की किसी एक विधा की पुस्तक सामने ला सकूं l
काश मेरे पास भी सम्मान पत्र औऱ शील्ड बांटने, नेताओं को बुलाकर भव्य समारोह करने का पैसा होता, तो इतने खर्चे में हर साल किसी एक पुस्तक का प्रकाशन कर, ढेर सारे युवा लेखकों को सामने लाने का सुख और संतोष प्राप्त करता है, वह भी उनसे बगैर एक पैसा लिए l हमारी आज की डायरी का यह पन्ना है उन लोगों के लिए , जो गुटबाजी जाति,भाई भतीजावाद, और साहित्य की राजनीति खेल कर, झूठे मान सम्मान और अर्थोपार्जन करने में दिन रात लगे हुए हैं और अपनी मेहनत का अपव्यय कर रहे हैं l एक गंदी साहित्यिक परिवेश का निर्माण कर रहे हैं l
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